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मेरे तो गिरधर गोपाल
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परन्तु सत्संग करते-करते वह क्रोध कम होता है, थोड़ी-सी बात में नहीं आता, जोर से नहीं आता और कम देर ठहरता है। जब छोटी-छोटी कई बातें इकट्ठी हो जाती हैं, तब सहसा किसी बात पर जोर से क्रोध का भभका आता है। परन्तु सत्संग करते-करते वह भी मिट जाता है। क्रोध का स्वरूप है कि जिस पर क्रोध आता है, उसका अनिष्ट चाहता है। सत्संग करते-करते किसी का अनिष्ट करने की चाहना मिट जाती है।

सत्संग करने वाले को कभी क्रोध आ जाय तो उसमें होश रहता है और वह नरक देने वाला नहीं होता। काम, क्रोध और लोभ- ये तीनों नरकों के दरवाजे हैं।इनमें फँसे हुए मनुष्य सीधे नरकों में जाते हैं। उनको नरकों में जाने से कोई अटकाने वाला नहीं है। परन्तु सत्संग करने वालों में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष कम हो जाते हैं। वह काम-क्रोधादि के वशीभूत नहीं होता। वह अन्यायपूर्वक, झूठ, कपट, जालसाजी, बेईमानी से धन इकठ्ठा नहीं करता। वह उतना ही लेता है, जितने पर उसका हक लगता है। पराये हक की चीज नहीं लेता। काम-क्रोधादि के वशीभूत होने से अन्याय-मार्ग में प्रवेश हो जाता है, जिसके फलस्वरूप नरकों की प्राप्ति होती है। परन्तु सत्संग करने से ये काम-क्रोधादि दोष क्रमशः पत्थर, बालू, जल और आकाश की लकीर की तरह कम होते-होते मिट जाते हैं। पत्थर पर जो लकीर पड़ जाती है, वह कभी मिटती नहीं। बालू की लकीर जब हवा चलती है, तब बालू से ढककर मिट जाती है। जल पर लकीर खिंचती हुई तो दीखती है, पर जल पर लकीर बनती नहीं। परन्तु आकाश में लकीर खींचें तो केवल अँगुली ही दिखती है, लकीर बनती ही नहीं। इस प्रकार जब काम-क्रोधादि दोष किंचिन्मात्र भी नहीं रहते, तब बन्धन मिट जाता है और परमात्मा में स्थिति हो जाती है।

इस प्रकार सत्संग करने से दोष कम होते हैं। अगर दोष कम नहीं होते तो असली सत्संग नहीं मिला है। भगवान् की कथा तो किसी से भी सुनें, सुनने से लाभ होता है। अगर कथा कहने वाला प्रेमी भक्त हो तो बहुत विलक्षणता आती है। परन्तु तात्त्विक विवेचन जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष से सुनने पर ही लाभ होता है।
जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ सन्त-महात्माओं के संग से बहुत विलक्षण एवं ठोस लाभ होता है। प्रेमी भक्त के विषय में आया है-

वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं-
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनति ।।

‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीला का वर्णन करती-करती गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओं को याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बार-बार रोता रहता है, कभी-कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वर से गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है।’

यः सेवते मासगुणं गुणात्परं-
हृदा कदा वा यदि वा गुणात्पकम् ।
सोऽहं स्वपादाञ्चितरेणुभिः स्पृशन्
पुनाति लोकत्रितयं यथा रविः ।।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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