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मेरे तो गिरधर गोपाल
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शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार-इन सबके अभाव का अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता। जिसके अभाव का अनुभव होता है, उसके हम अतीत हैं। हमारी भाव रूप सत्ता हरदम रहती है। सुषुप्ति में शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार कुछ भी नहीं रहता, सब लीन हो जाते हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि सुषुप्ति में मैं मर गया था, अब जी गया हूँ। सुषुप्ति में भी हम रहते हैं, तभी तो हम कहते हैं कि मैं बड़े सुख से सोया कि कुछ भी पता नहीं था। सुषुप्ति में भी हमारा होनापन ज्यों-का-त्यों था। कारण कि हमारी सत्ता (होनापन) अहंकार के अधीन नहीं है, बुद्धि के अधीन नहीं है, मन के अधीन नहीं है, इन्द्रियों के अधीन नहीं हैं, शरीर के अधीन नहीं है। हमारी सत्ता स्वतन्त्र है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण सब शरीरों का अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता। इसलिये हमारा स्वरूप निराकार है। साकाररूप शरीर पीछे बनता है और मिट जाता है। हम निराकाररूप से हैं, पर शरीररूप से अपने को साकार मानते हैं। यह मूल भूल है। इस भूल का हमें प्रायश्चित करना है। प्रायश्चित करने में तीन बातें हैं- 1- अपनी भूल को स्वीकार करें कि अपने को शरीर मानकर मैंने भूल की। 2- अपनी भूल का पश्चाताप करें कि मनुष्य (साधक) होकर मैंने ऐसी भूल की और 3- ऐसा निश्चय करें कि अब आगे मैं कभी भूल नहीं करूँगा अर्थात अपने को कभी शरीर नहीं मानूँगा। ये तीन बातें होने से प्रायश्चित हो जाता है और साधक अपने वास्तविक अव्यक्त स्वरूप में स्थित हो जाता है।

परमात्मतत्त्व समान रूप से सबमें परिपूर्ण है। सबमें परिपूर्ण होने पर भी विलक्षणता यह है कि वह ज्यों-का-त्यों रहता है, जबकि संसार में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है। गीता में आया है-

 
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥

‘प्रकृति और पुरुष दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों को तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो।’

यद्यपि प्रकृति और पुरुष- दोनों ही अनादि हैं, तथापि परिवर्तनशील विकार और गुण प्रकृति से ही होते हैं। पुरुष (जीवात्मा) अपरिवर्तनशील है।

 
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्त्तृत्वे हेतुरुच्यते॥

‘कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखों के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।’
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)

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