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मेरे तो गिरधर गोपाल
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निष्काम भाव होने से मनुष्य में राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वंदों का नाश हो जाता है और समता आ जाती है। समता आने से योग हो जाता है; क्योंकि योग नाम समता का ही है- ‘समत्वं योग उच्यते’ निष्कामभाव आने से चेतनता की मुख्यता और जड़ता की गौणता हो जाती है। मनुष्य में जितना-जितना निष्काम भाव आता है, उतना-उतना वह संसार से ऊँचा उठता है और जितना-जितना सकाम भाव आता है, उतना-उतना वह संसार में बँधता है। गीता में आया है-
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्माणि ते स्थिताः (गीता 5। 19)
जिनका मन साम्यावस्था में स्थित हो गया, उन लोगों ने संसार को जीत लिया अर्थात वे जन्म-मरण से ऊँचे उठ गये। ब्रह्म निर्दोष और सम है और उनका अन्तःकरण भी निर्दोष और सम हो गया, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हो गये। वास्तव में परमात्मा में स्थिति सबकी है; क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापक हैं। एक सुई की नोक-जितनी जगह भी परमात्मा से खाली नहीं है। परमात्मा सब जगह-समान रूप से परिपूर्ण हैं। परन्तु परमात्मा में स्थित होते हुए भी संसार में राग-द्वेष के कारण मनुष्य परमात्मा में स्थित नहीं हैं, प्रत्युत संसार में स्थित हैं। वे परमात्मा में स्थित तभी होंगे, जब उनके मन में राग-द्वेष मिट जायँगे। जब तक मन में राग-द्वेष रहेंगे, तब तक भले ही चारों वेद और छः शास्त्र पढ़ लो, पर मुक्ति नहीं होगी। राग-द्वेष को हटाने के लिये क्या करें? इसके लिये भगवान् कहते हैं-
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।
‘इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में मनुष्य के राग-द्वेष व्यवस्था से स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके शत्रु हैं।’
अनुकूलता को लेकर राग और प्रतिकूलता को लेकर द्वेष होता है। साधक को चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो। वशीभूत होने से राग-द्वेष बढ़ते हैं। जब तक राग-द्वेष हैं, तब तक जन्म-मरण है। राग-द्वेष से ऊँचा उठने पर मुक्ति होती है और परमात्मा में प्रेम होने पर भक्ति होती है। पहले कर्मयोग और ज्ञानयोग करके भी भक्ति कर सकते हैं और आरम्भ से भी भक्ति कर सकते हैं।
(साभार- स्वामी रामसुखदास जी, क्रमशः)
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