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रास लीला रहस्य
भाग- 2

भगवान की विशेष कृपा से प्रेमी साधकों के हितार्थ कभी-कभी यह अपने दिव्य धाम के साथ ही भूमण्डल पर भी अवतीर्ण हुआ करती है, जिसको देख सुन एवम् गाकर तथा स्मरण-चिन्तन करके अधिकारी पुरुष रसस्वरूप भगवान की इस परम रसमयी लीला का आनन्द ले सकें और स्वयं भी भगवान की लीला में सम्मिलित होकर अपने को कृतकृत्य कर सकें।

इस पंचाध्यायी में वंशीध्वनि, गोपियों के अभिसार, श्रीकृष्ण के साथ उनकी बातचीत, दिव्य रमण, श्रीराधाजी के साथ अन्तर्धान, पुनः प्राकट्‌य, गोपियों के द्वारा दिये हुए वसनासन पर विराजना, गोपियों के कूट प्रश्न का उत्तर, रास, नृत्य, क्रीडा, जलकेलि और वन-विहार का वर्णन है जो मानवी भाषा में होने पर भी वस्तुतः परम दिव्य है।

यह बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान का शरीर जीव-शरीर की भाँति जड़ नहीं होता। जड़ की सत्ता केवल जीव की दृष्टि में होती है, भगवान की दृष्टि में नहीं। यह देह है और यह देही है, इस प्रकार का भेदभाव केवल प्रकृति के राज्य में होता है। अप्राकृत लोक में जहाँ की प्रकृति भी चिन्मय है-सब कुछ चिन्मय ही होता है वहाँ अचित् की प्रतीति तो केवल चिद्विलास अथवा भगवान की लीला की सिद्धि के लिये होता है। इसलिये स्थूलता में या यों कहिये कि जड़ राज्य में रहने वाला मस्तिष्क जब भगवान की अप्राकृत लीलाओं के सम्बन्ध में विचार करने लगता है, तब वह अपनी पूर्व वासनाओं के अनुसार जड़ राज्य की धारणाओं, कल्पनाओं और क्रियाओं का ही आरोप उस दिव्य राज्य के विषय में भी करता है, इसलिये दिव्यलीला के रहस्य को समझने में असमर्थ हो जाता है।

यह रास वस्तुतः परम उज्ज्वल रस का एक दिव्य प्रकाश है। जड़ जगत् की बात तो दूर रही, ज्ञानरूप या विज्ञानरूप जगत् में भी यह प्रकट नहीं होता। अधिक क्या, साक्षात चिन्मय तत्त्वों में भी इस परम दिव्य उज्ज्वल रस का लेशाभास नहीं देखा जाता। इस परम रस की स्फूर्ति तो परम भावमयी श्रीकृष्णप्रेमस्वरूपा गोपीजनों के मधुर हृदय में ही होता है। इस रासलीला के यथार्थ स्वरूप और परम माधुर्य का आस्वाद उन्हीं को मिलता है, दूसरे लोग तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

क्रमश:

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