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रासलीला रहस्य
भाग- 11

जब प्रेम के सभी भाव पूर्ण होते हैं और साधकों को स्वामी सखादि के रूप में भगवान मिलते हैं, तब गोपियों ने क्या अपराध किया था कि उनका यह उच्चतम भाव जिसमें शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य सब के सब अन्तर्भूत हैं और जो सबसे उन्नत एंव सबका अन्तिम रूप है क्यों न पूर्ण हो? भगवान ने उनका भाव पूर्ण किया और अपने को असंख्य रूपों में प्रकट करके गोपियों के साथ क्रीड़ा की। उनकी क्रीड़ा का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है-

“रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः”
जैसे नन्हा-सा शिशु दर्पण अथवा जल में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब के साथ खेलता है, वैसे ही रमेशभगवान और व्रज सुन्दरियों ने रमण किया।

अर्थात् सच्चिदानन्दघन सर्वान्तर्यामरी प्रेमरसस्वरूप, लीलारसमय परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी ह्लादिनी शक्तिरूपा आनन्द-चिन्मय रस प्रतिभाविता अपनी ही प्रतिमूर्ति से उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्ब स्वरूपा गोपियों से आत्मक्रीड़ा की।पूर्णब्रह्म सनातन रसस्वरूप रसराज रसिक-शेखर रस-परब्रह्म अखिल रसामृतविग्रह भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द-रसमयी दिव्य क्रीड़ा का नाम ही रास है।

इसमें न कोई जड़ शरीर था, न प्राकृत अंग-संग था और न इसके सम्बन्ध की प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था चिदानन्दमय भगवान का दिव्य विहार, जो दिव्य लीलाधाम में सर्वदा होते रहने पर भी कभी-कभी इस जड़ जगत में भी प्रकट होता है।
वियोग ही संयोग का पोषक है, ‘मान’ और ‘मद’ ही भगवान की लीला में बाधक है। भगवान की दिव्य लीला में ‘मान’ और ‘मद’ भी, जो दिव्य हैं, इसीलिये होते हैं कि उनसे लीला में रस की और भी पुष्टि हो।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

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