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चीरहरण रहस्य- भाग 4

चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपों का सामना करना पड़ता है परंतु भगवान की प्रार्थना, कीर्तन, स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान की संनिधि का अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रस का अनुभव होते ही चित्त बड़े वेग से अन्तर्देश में प्रवेश कर जाता है और भगवान मार्गदर्शक के रूप में संसार-सागर से पार ले जाने वाली नाव पर केवट के रूप में अथवा यों कहें कि साक्षात चित्स्वरूप गुरुदेव के रूप में प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमा का बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्द-विशुद्ध ज्ञान की अनुभूति होने लगती है।

गोपियाँ जो अभी-अभी साधनसिद्ध होकर भगवान की अन्तरंग लीला में प्रविष्ट होने वाली हैं, चिरकाल से श्रीकृष्ण के प्राणों में अपने प्राण मिला देने के लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धिलाभ के समीप पहुँच चुकी हैं अथवा जो नित्यसिद्धा होने पर भी भगवान की इच्छा के अनुसार उनकी दिव्य लीला में सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनमें हृदय के समस्त भावों के एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदय में बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालने के लिये साधना में लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियों से कितना प्रेम करते हैं- यह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है।

श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कारों के आवरण अपने हाथ में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर बैठ गये। गोपियाँ जल में थीं वे जल में सर्वव्यापक, सर्वदर्शी भगवान श्रीकृष्ण से मानो अपने को गुप्त समझ रही थीं वे मानो इस तत्त्व को भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं हैं, स्वयं जलस्वरूप भी वे ही हैं। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे। वे श्रीकृष्ण के लिये सब कुछ भूल गयी थीं, परंतु अब तक अपने को नहीं भूली थीं। वे चाहती थीं केवल श्रीकृष्ण को परंतु उनके संस्कार बीच में एक परदा रखना चाहते थे। प्रेम प्रेमी और प्रियतम के बीच में एक पुष्प का भी परदा नहीं रखना चाहता। प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधानरहित, अबाध और अनन्त मिलन।

जहाँ तक अपना सर्वस्व-इसका विस्तार जाहे जितना हो-प्रेम की ज्वाला में भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँ तक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं। जब प्रेमी भक्त आत्म विस्मृत हो जाता है, तब उसका दायित्व प्रियतम भगवान पर होता है।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन)

क्रमश:

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