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श्रीकृष्ण चरित्र की उज्जवलता-2

अब यह प्रश्न विचारणीय अवश्य है कि ‘फिर भगवान लोकसंग्रह के आदर्श कैसे माने जा सकते हैं?’
इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो किसी के बचपन के कार्य लोकसंग्रह के आदर्श हुआ ही नहीं करते। संसार के बहुत बड़े-बड़े आदर्श महात्माओं के बचपन के कार्य भी महात्माओं के योग्य ही हुए हैं, ऐसी बात नहीं है। व्रजलीला 11 वर्ष की उम्र के पहले ही समाप्त हो जाती है।चीरहरण लीला,रासलीला यह सब लीलायें श्रीकृष्ण की नौवें व दसवें वयस की लीलायें हैं। इस वय का बालक  रति भाव का अनुभव व क्रीड़ा नहीं कर सकता।

दूसरे, यह रहस्य है कि व्रजलीला में यह गोपीलीला अत्यन्त गोपनीय वस्तु है। इसका साक्षात्कार तो श्रीभगवान और उनकी अन्तरंग शक्तियों को ही होता है। अन्य किसी का इसमें प्रवेश ही नहीं है। यह लीला न तो लोकालय में होती है और न लोकसंग्रह इसका उद्देश्य ही है। यह तो बहुत ऊपर उठे हुए महात्माओं के अनुभव-राज्य में होने वाली अप्राकृत लीला है। इसका बाह्य लोकसंग्रह से कोई सम्बन्ध नहीं।

व्रज में भी इस लीला को प्रायः कोई नहीं जानते थे। बाहर वालों की तो बात ही क्या है, गोपों ने तो अपनी-अपनी पत्नियों को अपने पास सोये हुए देखा था-

"मन्यमानाः स्वपाश्र्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः"

ब्रह्मादि देवता-मण्डप के अंदर होने वाले कार्य को न देख पाकर, बाहर से मण्डप की शोभा देखकर ही मुग्ध और चकित होने वाले लोगों की भाँति-केवल बाह्यभाव को देख-देखकर चकित हो रहे थे। भगवान शंकर और नारद को तथा किसी काल में अर्जुन को गोपीभाव की प्राप्ति होने पर ही इस लीला के दर्शन हुए थे।

इसीलिये शिशुपाल ने भगवान पर गालियों की बौछार करते समय कहीं गोपीलीला का संकेत भी नहीं किया। अगर उसे पता होता तो वह इस विषय में चुप न रहता। इसका यह तात्पर्य नहीं समझना चाहिये कि यह लीला हुई ही नहीं थी। महाभारत में ही द्रौपदी ने अपनी आर्तपुकार में श्रीभगवान को ‘गोपीजनप्रिय’ कहकर पुकारा है। द्रौपदी अन्तरंग भक्ता थीं इससे उनको इस रहस्य का कुछ पता था। अतएव लोकसंग्रह से इसका कोई सम्बन्ध नहीं हैं तब लोकसंग्रह के आदर्श में कोई बाधा कैसे आ सकती है? यह तो साधारण लोक की बात है जो अन्तरंग साधक हैं, उनके लोक के लिये तो यही लोकसंग्रह का आदर्श है।
(आभार श्री राधामाधव चिंतन से)

क्रमश:

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