भगवत रसिक जी

"सन्त परिचय" पोस्ट-11
                         "भगवत रसिक जी का चरित्र"
           श्री भगवत रसिक जी की स्थिति बहुत ही ऊपर उठ चुकी थी। देह-जात के भेद का भान ही नहीं था। जाति तो देह की होती है, पर रसिक अनन्य की कोई जाति नहीं होती। स्वयं मधुकरी वृति से रहते थे। एक दिन किसी धोबी के घर से मधुकरी ले आए किसी ईर्ष्यालु ने जाकर गुरु जी से शिकायत कर दी। श्री ललित मोहनी दास जी ने भ्रमवश भगवत रसिक जी को वृंदावन से बाहर जाने की आज्ञा दे दी।
            भगवत रसिक जी इस निर्णय से बहुत दु:खी हुए लेकिन गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर यमुना जी के किनारे-किनारे वृंदावन को हृदय में बसाकर प्रयाग की ओर चल पड़े। उनके साथ कुछ सन्त भी हो लिए। जिनमें रसरंग जी, बिहारी बल्लभ जी, मोहनदास आदि प्रमुख थे। मार्ग में एक घनघोर जंगल आया जिसमें एक नरभक्षी सिंह रहता था। मोहन दास जी ने यही विश्राम करने की प्रार्थना की। भगवत रसिक जी बोले- डरो मत साथ चलो। सिंह आया तो उसे देखकर भगवत रसिक जी ने अपने करुुआ के जल को उसके ऊपर छिड़का और प्रह्ललाद जी की कथा सुनाकर उसकी सारी विषमता का हरण करके पीपाजी की तरह भक्त बना दिया। सभी जय-जय कर उठे। भगवत रसिक जी सन्तों के साथ प्रयाग पहुँचे और अड़ैल के समीप यमुना किनारे एक मड़ी में निवास करने लगे। यहीं भजन भावना में लीन रहते।
           प्रचलित है कि, एक वयोवृद्ध सन्त भगवत रसिक जी की वाणी की एक प्रति 'हस्तलिखित' वृंदावन आकर श्री ललित मोहनी दास जी को अमूल्य निधि बताकर भेंट कर गए। वे उसे पढ़ कर अति प्रसन्न हुए लेकिन एक पद "चेला काहू के नहीं, गुरु काहू के नाहि।' को देखकर संकोच में पड़ गए कि इसका भक्तों में प्रचार करें कि नहीं। अगले दिन प्रात यमुना स्नान करने गए तो ग्रंथ साथ ले गए। स्नान के पश्चात यमुनाजी में ग्रंथ प्रवाहित कर के वापस आ गये। दूसरे दिन स्नान को गए और डुबकी लगा बाहर निकले तो ग्रंथ उनके हाथ में आ गया। पुनः प्रवाहित कर के वापस आ गए तीसरे दिन पुनः स्नान को पधारें तो डुबकी लगाते ही ग्रंथ हाथों में आ गया। ग्रंथ का बस्ता रंच मात्र भी भीगा नहीं था। विचार में पड़ गए क्या करें ? उसी समय यमुना जी बोली- इसे साथ ले जाइए इस ग्रंथ के द्वारा रसिक भक्तों का कल्याण होगा। तब श्री ललित मोहनी जी अपने साथ ले आए। जो इस वाणी को पढ़ता सुनता है उसके हृदय में श्यामा-श्याम की नित्यकेलि की लीलाएँ प्रगट हो जाती हैं।
           जब श्री भगवत रसिक जी निकुंज महल जाने लगे तो गंगा जी प्रगट हो कर बोली - आप शिवलोक चलिए और उसे पवित्र कीजिए। सरस्वती जी कहने लगीं - ब्रह्मा जी आपकी राह देख रहे हैं। यमुनाजी मुस्कुराती हुई बोलीं- चलो वृंदावन चलें, वहीं नित्य स्वरूप से श्यामा-श्याम जी की सेवा करना। देवता आदि इंद्र के साथ बोले- आप स्वर्ग चलें वहाँ सुख भोगे। भगवत रसिक जी बोले- स्वर्ग में सुख विनाशी है। इसलिए हे देवताओं ! श्यामा-श्याम के समीप वृंदावन जाएंगे। वहाँ हरिदासी नित्य लाड़ लड़ाती हैं। उन्ही के चरणों में हमारी आस्था है। ऐसा कहकर प्रयाग में ही अपनी नित्य सखी स्वरूप को धारण करके निकुंज महल के निकुंज परिकर में पाँच भौतिक शरीर को छोड़कर जा मिले। प्रयाग में ही इनकी समाधि बनी हुई है। इन महापुरुषों का जीवन चरित्र साधक को साधना का मार्ग प्रशस्त करता है। इसलिए सदैव अपने मन को उन महापुरुषों के परम पावन चरित्रों में निमज्जन करना चाहिए।
                    "जय जय श्री राधे"

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला