कृष्णदास कविराज

सन्त परिचय, पोस्ट-2
"श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी"
     कालावधि (1517-1616)
        श्री कृष्ण दास कवि राज गोस्वामी जी ने जीवो के कल्याण के लिए श्री चैतन्य चरितामृत ग्रंथ की रचना की।  जो वैष्णवों रसिकों के लिए एक अमूल्य निधि है। इनका जन्म झामटपुर ग्राम में हुआ था। जो वर्धमान जिले के अंतर्गत आता है। छः गोस्वामी (श्री रूप, सनातन, रघुनाथ भट्ट, जीव,  गोपाल भट्ट, रघुनाथ दास) की कृपा से सब ग्रंथों का अध्ययन और श्री नित्यानंद जी की कृपा से वृंदावन धाम का वास प्राप्त हुआ। इनकी रचना 'गोविंद लीलामृत' जिसमें श्यामा-श्याम के अष्टयाम सेवा का वर्णन है। जो साधकों के लिए प्राण हैं। श्री रघुनाथ भट्ट जी इनके गुरुदेव हुए जिन्होंने अपनी अमृतमय वाणी के द्वारा भवतापित्त जीवों को भागवत की अद्भुत कथा सुनाकर सुख प्रदान किया।
चरित्र
         बिना किसी कारण के कृपा करने वाले दो ही हैं। या तो स्वयं भगवान श्याम सुंदर या उनके प्यारे- दुलारे संत। "हेतु रहित जग जुग उपकारी।  तुम तुम्हार सेवक असुरारी।"
          इस भारत भूमि से भगवान को अत्यंत ही प्रेम है। भक्ति को पोषण करने के लिए समय-समय पर या तो वह स्वयं अवतरित होते हैं या अपने नित्य परिकरो को भेजते रहते हैं, जो आचरण करके जीवों का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उन मार्गों का आश्रय ग्रहण करके यह जीव जो भगवद विमुख हो गया है, प्रभु के नित्य सानिध्य को प्राप्त कर लेता है। इन्ही नित्य परिकरों श्याम-श्याम की नित्य सहचरी कस्तूरी मंजरी है जो कृष्णदास कविराज के रूप में इस धराधाम पर जीवो के लिए अवतरित हुए।
          इनका जन्म सन 1517 में पश्चिम बंगाल में वर्धमान जिले के अंतर्गत झामटपुर ग्राम में हुआ। धर्म परायण इनके पिता जी का नाम भागीरथ एव माता का नाम सुनंदा देवी था। इनके एक लघु भ्राता भी थे। जिनका नाम श्यामदास था। अल्प आयु में ही माता - पिता का धाम गमन हो गया। जितने भी बड़े महापुरुष हुए हैं। अधिकतर देखा गया है कि उन का प्रारंभिक जीवन अत्यंत कष्टमय व्यतीत हुआ है। ऐसा ही जीवन श्रीकृष्णदास कविराज जी का भी रहा। बचपन से ही इनकी निताई गौर और राधा कृष्ण में अपार भक्ति थी। नाम संकीर्तन की ध्वनि इनके हृदय को द्रवीभूत कर देती।
          कविराज गोस्वामी ने श्री चैतन्य चरितामृत ग्रंथ में अपने जीवन की एक अद्भुत घटना का वर्णन अपनी लेखनी के माध्यम से किया है। उस समय महाप्रभु और नित्यानंद जी की कृपा से घर-घर में नाम संकीर्तन की धूम मची थी।  क्योंकि जिसके घर में नाम संकीर्तन होता महाप्रभु जी अत्यंत प्रसन्न होते और परिवार वालों को आशीर्वाद प्रदान करते। एक बार कविराज कृष्णदास जी के घर में अष्टप्रहर नाम संकीर्तन का आयोजन किया गया, जिसमें श्री नित्यानंद प्रभु के शिष्य श्री मीनकेतन श्री रामदास जी को आमंत्रित किया। जो प्रेम की मूर्ति थे।  प्रभु प्रेम में यह निरंतर डूबे रहते थे और जब प्रेम हृदय में नहीं समाता था तो नेत्रों के माध्यम से अश्रु रूप में प्रवाहित होते रहते थे। आप जब संकीर्तन में डूब जाते थे तो अष्ट सात्विक भाव उनके वपु में प्रगट हो जाते थे। कभी पुलक होता था कभी कम्प। शरीर रोमांचित हो जाता था। अवधूत की तरह ये कृष्णदास जी के घर आंगन में आकर आसन पर विराजमान हो गए। जितने लोग वहां उपस्थित थे सभी ने आकर चरणों में दंडवत प्रणाम किया। प्रेमावेश में इन्होंने किसी पर अपनी वंशी से प्रहार किया, किसी को चांटा मार दिया, किसी की पीठ ही चढ़ बैठे। फिर अचानक उठ खड़े हो गए और प्रेमोन्मत्त दशा में संपूर्ण आंगन में घूम-घूम कर नृत्य करने लगे सभी का हृदय संकीर्तन नृत्य से प्रेम में डूब गया। उत्सव के पश्चात नित्यानंद प्रभु के स्वरूप को लेकर कृष्ण दास जी के छोटे भाई श्याम दास का श्रीमान  रामदास जी के साथ विवाद हो गया। मीन केतन रामदास जी क्रोधित होकर वहां से चले गए। इस अपराध के कारण श्यामदास का तत्काल सर्वनाश हो गया।
जे अपराध भक्त कर करई।  राम रोष पावक सो जरई ।।
        श्यामदास महाप्रभु जी को मानते थे लेकिन नित्यानंद प्रभु के प्रति उनका विश्वास उतना नहीं था। श्यामदास का जब श्रीमीन केतन राम दास जी के साथ विवाद हुआ था उस समय कृष्ण दास जी ने श्याम दास की भर्त्सना की थी। और कहा था महाप्रभु जी और नित्यानंद प्रभु,  दोनों भाई एक ही तत्व के दो समान प्रकाश है। दोनों में से एक को मानना, एक को न मानना, 'अर्धकुक्कुटी न्याय' का दोषी होना है। वह पाखंडी है जो ऐसा करता है।
         कविराज कृष्णदास गोस्वामी जी ने लिखा है -"मैंने अपने भाई की भत्सर्ना की, मेरे इसी गुण से मुग्ध होकर नित्यानंद प्रभु ने उसी रात मुझे स्वप्न में दर्शन दिया क्योंकि स्वयं प्रभु कहते हैं जो मेरे भक्त का साथ देता है वह मुझे अत्यंत प्रिय है। कृष्णदास जी ने स्वपन में दंडवत प्रणाम करके नित्यानंद जी के चरणों से लिपट गए। नित्यानंद जी ने अपना चरण कमल कृष्णदास जी के मस्तक पर आकर बोले -उठ, उठ। कृष्ण दास जी ने उठकर जिस स्वरुप का दर्शन किया उसका वर्णन चैतन्य चरितामृत में किया है। नित्यानंद प्रभु बोले- 'कृष्णदास ! तुम श्री धाम वृंदावन चले जाओ।  वहां तुम्हारे अभीष्ट की सिद्धि होगी। इतना कहकर नित्यानंद प्रभु अंतर्ध्यान हो गए। कृष्णदास मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। प्रात: होते ही कृष्ण दास जी ने विचार किया अब तो शीघ्र ही श्री धाम वृंदावन की ओर प्रस्थान करना चाहिए। वहाँ से चलकर पहुंचे श्री धाम वृंदावन। "धनि वृंदावन जहां सदाई बसंत है" (श्री भक्तमाल)
          उस समय श्री धाम वृंदावन धाम में रूप सनातन आदि गोस्वामीगण अपने-अपने भजन में निरत थे। कृष्णदास जी ने षडगोस्वामी के अन्यतम श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी से शिक्षा प्राप्त की और सभी महापुरुषों का सत्संग लाभ प्राप्त करने लगे। इन के भक्ति बाप को देखकर इन को एक अमूल्य रत्न के रूप में स्वीकार किया। बड़े स्नेहपूर्वक भक्ति शास्त्रआदि  की शिक्षा देने लगे। एक तो वे मेघाशक्ति के धनी थे और इतने वैष्णव आचार्य की कृपा से श्री कृष्णदास जी सभी शास्त्रों में पारंगत हो गए। निज कृत चैतन्य चरितामृत ग्रंथ में इन्होंने उन सभी  गोस्वामीगणों  का नाम लेकर शिक्षा गुरु के रुप में उनकी वंदना की है।
श्री रूप श्री सनातन भट्ट रघुनाथ, श्री जीव गोपाल भट्ट दास रघुनाथ।
एई छः गुरू शिक्षा गुरु जे आमार, तां सभार  पाद पदमें कोटि नमस्कार।।
          इनकी ज्ञान-गरिमा और भक्ति-भाव इनके ग्रंथों से स्वत्: प्रमाणित हो जाता है। इसीलिए तो इन्हें 'कविराज' नाम से पुकारने लगे। इन्होंने बहुत ग्रंथों की रचना की। चैतन्य चरितामृत की रचना इन्होंने तब की जब से बहुत वृद्ध हो चुके थे। अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त थे। आँखों से बहुत ना दिखता था, कानों से न के समान सुनाई पड़ता था।  न चल सकते थे न उठ बैठ सकते थे। हाथ में लेखनी उठाते थे तो हाथ कांपने लगता था। इस ग्रंथ की रचना कैसे हुई, इसकी भी एक सुंदर कथा है। इस ग्रंथ के लेखन से पूर्व महाप्रभु जी की लीला से सम्बंधित कई ग्रन्थ लिखे जा चुके थे। इन ग्रंथों मरीन किसी भी ग्रन्थ में शेष गंभीरा लीला का विशेष रूप से वर्णन नहीं किया गया था। इसीलिए गौर लीला रस का आस्वादन करने वाले भक्तों को उन से भली प्रकार तृप्ति नहीं होती थी। एक दिन भूगर्भ गोस्वामी श्री गोविंद देव जी के सेवक श्री हरिदास जी, श्री यादवाचार्य एवं शिवानंद चक्रवती आदि वृंदावन के विशिष्ट भक्तों ने मिलकर श्री कृष्णदास जी से आग्रह किया कि ऐसे ग्रंथ की रचना करो जिससे महाप्रभु की अन्यथा लीला का विस्तृत वर्णन हो। वृद्ध कृष्णदास जी ना तो हाँ ही का कर सकते थे और ना ही वैष्णव अग्रगण्य इन सभी भक्तों की आज्ञा का उल्लंघन कर सकते थे। किंकर्तव्य - विमूढ़ होकर श्री मदन मोहन जी के मंदिर गये। उस समय गोंसाई दास नाम के पुजारी सेवा में थे। श्री कृष्ण दास जी ने प्रभु को प्रणाम करके अपने हृदय की बात निवेदन की। उसी समय मदन मोहन जी के गले से माला टूट कर गिर पड़ी पुजारी जी ने उठाकर श्री कृष्णदास जी के गले में डाल दी। श्री कृष्ण दास जी अति प्रसन्न हुए और ग्रन्थ रचना का आदेश मान कर उसी समय उसी स्थान पर इन्होंने ग्रन्थ लेखन आरम्भ कर दिया। स्वयं कविराज कृष्णदास जी ने ग्रंथ रचना के बारे में वर्णन किया है। इसके वास्तविक रचयिता तो मदनमोहनजी है। मेरा लिखना तो वैसे ही है जैसे तोते का पढ़ना। तोते को जो पढ़ाया जाता है, उसी पर अक्षरश दौहरा देता है। ठाकुर मदन मोहन जैसी प्रेरणा करते गए मैं वैसा ही लिखता गया तभी तो चैतन्य चरितामृत कृष्णदास कविराज जी का अक्षय कीर्ति स्तंभ बनकर रह गया। यह गौड़ीय गोस्वामी गणों के समस्त सिद्धांत- ग्रंथों का सार स्वरूप है बंगला साहित्य का ही सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। श्री कृष्णदास जी दैन्यता की साक्षात् मूर्ति स्वरूप थे।  इनकी दीनता के वचन सुनकर हृदय विस्मित हो जाता है। "जगाई मगाई से भी मैं पापी हूँ और विष्ठा के कीट से भी मैं नीच हूँ।  मेरा जो नाम सुनेगा उसका पुण्य क्षय हो जायगा एवं जो मेरा नाम लेगा उसे पाप होगा। श्री कविराज गोस्वामी की भजन स्थली पत्थर पूरा स्थित बड़ी सुरमाकुँज में दर्शनीय है। उनके द्वारा हस्तलिखित "श्री चैतन्य चरितामृत" ग्रन्थ की मूल प्रति बड़ी सुरमाकुँज के ग्रंथागार में सुरक्षित है।
         इन के पांच मुख्य शिष्य थे। गोस्वामी मुकुंद दास जी ने भक्ति रसामृत सिंधु की टीका लिखी है। और दूसरे शिष्य विष्णु दास ने उज्जवल नीलमणि का टीका लिखी है। दिव्य अति रम्य पावन स्थली श्री राधा कुंड पर भजन करते हुए संत 1616 में अश्विन शुक्ल द्वादशी को नित्य निकुंज में प्रवेश किया।     
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"जय जय श्री राधे"

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