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रासलीला रहस्य
भाग- 7

काम पूरा करके चलें ऐसा गोपियों ने नहीं सोचा। वे चल पड़ीं, उस विषयासक्ति-शून्य संन्यासी के समान, जिसका हृदय वैराग्य की प्रदीप्त ज्वाला से परिपूर्ण है। किसी ने किसी से पूछा नहीं, सलाह नहीं की अस्त-व्यस्त गति से जो जैसे थी, वैसे ही श्रीकृष्ण के पास पहुँच गयी। वैराग्य की पूर्णता और प्रेम की पूर्णता एक ही बात है, दो नहीं। गोपियाँ व्रज और श्रीकृष्ण के बीच में मूर्तिमान वैराग्य हैं या मूर्तिमान प्रेम, क्या इसका निर्णय कोई कर सकता है?

साधना के दो भेद हैं- -
•मर्यादापूर्ण वैध साधना और
•मर्यादारहित अवैध प्रेमसाधना।

दोनों के ही अपने-अपने स्वतन्त्र नियम हैं। वैध साधना में जैसे नियमों के बन्धन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का और विविध पालनीय धर्मों का त्याग साधन से भ्रष्ट करने वाला और महान हानिकर है, वैसे ही अवैध प्रेम साधना में इनका पालन कलंकरूप होता है।

यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेम साधना का साधक जान-बूझकर छोड़ देता है। बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है, जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है। ये वहाँ अपने-आप वैसे ही छूट जाते हैं, जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है। जमीन पर न तो नौका पर बैठकर चलने का प्रश्न उठता है और न ऐसा चाहने या करने वाला बुद्धिमान ही माना जाता है। ये सब साधन वहीं तक रहते हैं, जहाँ तक सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छा से सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान की ओर दौड़ने नहीं लग जातीं।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

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