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भाग- 4

भगवान का चिदानन्दघन शरीर दिव्य है। वह अजन्ता और अविनाशी है, हानोपादानरहित है। वह नित्य सनातन शुद्ध भगवत्स्वरूप ही है। इसी प्रकार गोपियाँ दिव्य जगत् की भगवान की स्वरूपभूता अन्तरंग-शक्तियाँ हैं। इन दोनों का सम्बन्ध भी दिव्य ही है। यह उच्चतम भावराज्य की लीला स्थूल शरीर और स्थूल मन से परे है। आवरण भंग के अनन्तर जब भगवान स्वीकृति देते हैं, तब इसमें प्रवेश होता है। प्राकृत देह का निर्माण होता है स्थूल, सूक्ष्म और कारण-इन तीन देहों के संयोग से। जब तक ‘कारण-शरीर’ रहता है, तब तक इस प्राकृत देह से जीव को छुटकारा नहीं मिलता।

‘कारण-शरीर’ कहते हैं पूर्वकृत कर्मों के उन संस्कारों को, जो देह-निर्माण में कारण होते हैं।
इस ‘कारण-शरीर’ के आधार पर जीव को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना होता है और यह चक्र जीव की मुक्ति न होने तक अथवा ‘कारण’ का सर्वथा अभाव न होने तक चलता ही रहता है। इसी कर्मबन्धन के कारण पांचभौतिक स्थूलशरीर मिलता है-जो रक्त, मांस, अस्थि, मेद, मज्जा आदि से भरा और चमड़े से ढका होता है।ये सभी प्राकृत शरीर हैं। इसी प्रकार योगियों के द्वारा निर्मित ‘निर्माणकाय’ यद्यपि अपेक्षाकृत शुद्ध है, तथापि वे भी हैं प्राकृत ही हैं।

पितर या देवों के दिव्य कहलाने वाले शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत शरीर इन सबसे विलक्षण हैं, जो महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होते और भगवद्देह तो साक्षात भगवत्स्वरूप ही है। देव शरीर प्रायः रक्त मांस मेद अस्थि वाले नहीं होते। अप्राकृत शरीर भी नहीं होते। फिर भगवान श्रीकृष्ण का भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त मांस अस्थिमय होता ही कैसे। वह तो सर्वथा चिदानन्दमय है। उसमें देह-देही, गुण-गुणी, रूप-रूपी, नाम-नामी और लीला तथा लीलापुरुषोत्तम का भेद नहीं है।
(साभार श्री राधामाघव चिंतन से)

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