चीरहरण लीला रहस्य 1

चीरहरण रहस्य- भाग 1

चीरहरण के प्रसँग को लेकर कई तरह की शंकाएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्ध में कुछ विचार करना आवश्यक है। वास्तव में बात यह है कि सच्चिदानन्दघन भगवान की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओं का रहस्य जानने का सौभाग्य बहुत थोड़े लोगों को होता है। जिस प्रकार भगवान चिन्मय हैं, उसी प्रकार उनकी लीलाएँ भी चिन्मयी होती हैं। सच्चिदानन्दरसमय साम्राज्य जिन परमोन्नत स्तर में यह लीला हुआ करती है, उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो ज्ञान-विज्ञान स्वरूप विशुद्ध चेतन परमब्रह्म में भी उसका प्राकटय नहीं होता और इसीलिये ब्रह्मसाक्षातकार को प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रस का समास्वादन नहीं कर पाते।

भगवान की इस परमोज्ज्वल दिव्य रस-लीला का यथार्थ प्रकाश तो भगवान की स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति नित्यनिकुंजेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी और तदंगभूता प्रेममयी गोपियों के ही हृदय में होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान की इस परम अन्तरंग रसमयी लीला का समास्वादन करती हैं।

दशम स्कन्ध के इक्कीसवें अध्याय में ऐसा वर्णन आया है कि भगवान की रूपामाधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो जाती हैं। बाईसवें अध्याय में उसी प्रेम की पूर्णता प्राप्त करने के लिये वे साधन में लग जाती है। इसी अध्याय में भगवान आकर उनकी साधना पूर्ण करते हैं। यही चीर-हरण का प्रसंग है।

गोपियाँ क्या चाहती थीँ बात उनकी साधना से स्पष्ट है। वे चाहती थीं-श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण, श्रीकृष्ण के साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय। शरत्-काल में उन्होंने श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि की चर्चा आपस में की थी, हेमन्त के पहले ही महीने में अर्थात भगवान के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्ष में उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी। विलम्ब उनके लिये असह्य था। जाड़े के दिनों में वे प्रातःकाल ही यमुना -स्नान के लिये जातीं, उन्हें शरीर की परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिनें एक साथ हो जातीं, उनमें ईष्र्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जाति वालों का भय नहीं था। वे घर में भी हविष्यान्न का ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्ण के लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करती थीं। अपने इस कार्य को सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

क्रमश:

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