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श्रीकृष्ण चरित्र की उज्जवलता- 3

श्रीकृष्ण लीला के अन्ध-अनुकरण से हानि-
भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्तम। दोनों एक हैं। एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा भिन्न-भिन्न लीलाओं के लिये दो युगों में दो रूपों में अवतीर्ण हुए। इनमें बड़े-छोटे की कल्पना करना अपराध है।
                                  श्रीराम रूप में आपकी प्रत्येक लीला सबके अनुकरण करने योग्य मर्यादा रूप की होती है, राम रूप में लीलाओं का रहस्य अत्यन्त निगूढ़ होने पर भी बाह्य रूप से सबकी समझ में आ सकता है और बिना किसी बाधा के अपने-अपने अधिकारानुसार सभी उसका अनुकरण कर सकते हैं, वह सीधा राजमार्ग है।

परंतु भगवान की श्रीकृष्ण रूप में की गयी कुछ लीलाएँ बाहर-भीतर दोनों ही प्रकार से निगूढ़ और रहस्यमय हैं। इनका समझना अत्यन्त ही कठिन है और बिना समझे अनुकरण करना तो हलाहल विष पीना अथवा जान-बूझकर धधकती हुई आग में कूद पड़ना है। यह बड़ा ही कण्टकाकीर्ण और ज्वालामय मार्ग है।

अतएव सर्वसाधारण के लिये सर्वथा समझने, मानने और पालन करने योग्य महान् उपदेश भगवान श्रीकृष्ण की भगवद्गीता है और सर्वतोभाव से अनुकरण करने योग्य भगवान श्रीराम के मर्यादा युक्त लीलाएँ हैं। जिन लोगों ने बिना समझे-बूझे भगवान श्रीकृष्ण की लीला का अनुकरण किया, वे स्वयं डूबे और दूसरे अनेक निर्दोष नर-नारियों को डुबाने का कारण बने।

अग्नि पी जाने, पहाड़ अँगुली पर उठा लेने, कालिय नाग को नाथने आदि क्रियाओं का अनुकरण तो कोई क्यों करने लगा और करना भी शक्ति के बाहर की बात है।अनुकरण करने वाले तो बस, चीरहरण, रासलीला और श्रीराधाकृष्ण की प्रेमलीलाओं का अनुकरण करते हैं। इन लीलाओं के महान उच्च आध्यात्मिक भाव को समझने में सर्वथा असमर्थ होकर अपनी वासनामयी वृत्ति को चरितार्थ करने के लिये इनके अनुकरण के नाम पर वास्तव में पाप किया जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि ‘भगवत्प्रेम में वैराग्य की कोई आवश्यकता नहीं, त्याग की अपेक्षा नहीं। श्रीप्रिया-प्रियतम के प्रेम में केवल श्रृंगार और भोग का ही प्रयोजन है' बल्कि यहाँ तक भी कह दिया जाता है कि ‘युगल-सरकार के चरणों के सेवक बन जाओ फिर चोरी-जारी, झूठ-कपट, प्रमाद-आलस्य - जो कुछ भी करते रहो, कोई आपत्ति नहीं है। ये सारी बातें अपनी दुर्बलताओं को छिपाने, भगवद्भक्ति के नाम पर विषयों को प्राप्त करने, कपट-प्रेमी बनकर पापा कमाने और भोले नर-नारियों को ठगकर अपनी बुरी वासनाओं को तृप्त करने के लिये कही जाती हैं। सच्चिदानन्दघन भगवान श्रीकृष्ण और आत्म स्वरूपिणी जगज्जननी श्रीराधिकाजी का चरण-सेवक बनकर भी क्या कोई कभी चोरी-जारी आदि पापकर्म कर सकता है?
(आभार श्री राधामाधव चिंतन से)

क्रमश:

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