बहिना बाई

"सन्त परिचय" पोस्ट-5
                         "भक्ता बहिणाबाई"
          सन्त चरित्रों का श्रवण और मनन करना, मानव के मन पर अच्छे संस्कार करने का श्रेष्ठ साधन है। पंढरपुर धाम मे विराजमान श्री कृष्ण, पांडुरंग अथवा विट्ठल नाम से जाने जाते है। भगवान् श्री विट्ठल के अनन्य भक्त जगतगुरु श्री तुकाराम जी महाराज के कई शिष्य हुए परन्तु स्त्री वर्ग में उनकी मात्र एक ही शिष्या हुई है जिनका नाम सन्त श्री बहिणाबाई था।
          बहिणाबाई का जन्म मराठवाड़ा प्रांत में वैजपूर तालुका के  देवगाँव में सम्वत १५५० में हुआ था। (बहुत से विद्वानों का मत है के जन्म १५५१ में हुआ था।) इनके पिता का नाम श्री आऊ जी कुलकर्णी और माता का नाम श्री जानकीदेवी था। गाँव के पश्चिम दिशा में शिवानंद नामक महान तीर्थ है, जहाँ श्री अगस्त्य मुनि ने अनुष्ठान किया था। ग्रामवासियो की श्रद्धा थी कि इस तीर्थ के पास ‘लक्ष्यतीर्थ‘ में स्नान करके अनुष्ठान करने से मनोकामना पूर्ण होती है। इसी तीर्थ पर श्री आऊ जी कुलकर्णी ने अनुष्ठान करने पर श्री बहिणाबाई का जन्म हुआ था।
            जन्म होते ही विद्वान पंडितो ने इनके पिता को बता दिया था की यह कन्या महान भक्ता होगी। जब बहिणाबाई  नौ वर्ष की थी उस समय देवगांव से १० मिल दूर शिवपुर से बहिणाबाई के लिए विवाह का प्रस्ताव आया। उनका विवाह चंद्रकांत पाठक नामक तीस वर्ष के व्यक्ति से तय किया गया और यह उसका दूसरा विवाह था। वह कर्मठ ब्राह्मण था और कुछ संशयी वृत्ति का  भी था। बहिणाबाई बाल्यकाल से ही बहुत सरल स्वभाव की थी, वह सोचती की हमरे पति ज्ञानी है और इस विवाह से वह अप्रसन्न नहीं हुई।
         अपने पति के साथ रहते रहते ९ वर्ष की आयु से ही ये यात्रा करो, ये व्रत करो, ये नियम पालन करो यह सब शिक्षा उसे बहुत मिली, परन्तु अभी उसके ह्रदय में भक्ति का उदय नहीं हुआ था। एक दिन बहिणाबाई के माता-पिता पर संकट आया, उनके पिता के भाई बंधुओ से पैसो को लेकर कुछ विवाद हो गया। बहिणाबाई और उनके पति उनके गांव मदद करने के लिए तत्काल आ गए। बहिणाबाई के माता-पिता भी बड़े सरल थे, उनको धन का लोभ नहीं था अतः वे रात को ही अपने बेटी-जमाई के साथ घर छोड़कर चल दिए। पैदल चलते-चलते वे लोग श्री धाम पंढरपुर में आये और पांच दिन वहीं वास किया। भगवान् श्री विट्ठल के दर्शन करके बहिणाबाई का मन उस रूप में आसक्त हो गया, वहाँ सन्तो का कीर्तन, नाम श्रवण सुनकर उसको बहुत आनन्द हुआ।
          आगे चलते-चलते वे सब कोल्हापुर नगर में आये, बहुत दिन तक यहाँ-वहाँ भटकना सम्भव नहीं था अतः कोल्हापुर नगर में ही निवास करने का विचार उन्होंने किया। कोल्हापुर में हिरंभट नामक व्यक्ति ने इनको आधार दिया और अपने घर में निवास करने के लिए थोड़ी जगह दे दी। हिरंभट ने बहिणाबाई के पति रत्नाकर पाठक को एक बछड़े सहित गौमाता दान में दी। कोल्हापुर महालक्ष्मी का सिद्ध शक्तिपीठ होने के कारण बहुत से साधु सन्तों का वह आना-जाना रहता था। बारह महीने कोल्हापूर में कथा, कीर्तन, प्रवचन, परायण ,अनुष्ठान का वातावरण रहता था। सन्तों से कथा श्रवण करना बहिणाबाई को बहुत प्रिय लगता, उन्हें सन्तसंग से कई बातों की शिक्षा मिली। उसमें कथा के संस्कार, पति भक्ति के संस्कार, गौ भक्ति के संस्कार जागृत हो गए। घर पर जो कपिला गौ और उसके बछड़े से बहिणाबाई का बड़ा ही प्रेम था।
           एक दिन कोल्हापूर में श्री जयराम स्वामी (जयरामस्वामी वडगावकर ) नाम के वैष्णव अपने शिष्यमंडली सहित पधारे। शिष्यों के घर नित्य कीर्तन होने लगा। बहिणाबाई अपने माता-पिता के साथ कीर्तन में जाती और आश्चर्य है कि गाय का बछड़ा भी उनके पीछे जहाँ-तहाँ आ जाता। कीर्तन की समाप्ति तक वह बछड़ा एक जगह खड़ा रहता और आरती होने पर मस्तक झुकाकर प्रणाम् करता सन्तों को प्रणाम् करता। इस बात का सबको आश्चर्य लगता अतः लोग कहने लगे की अवश्य ही यह पूर्वजन्म में कोई हरि भक्त होगा।
           एक बार मोरोपन्त नामक व्यक्ति के घर कीर्तन था। जगह कम पड़ गयी थी अतः बछड़े को बाहर निकाल दिया। बहिणाबाई को बहुत कष्ट हुआ, उनकी गौ भक्ति उच्च कोटि की थी। वह सोचने लगी कि यह बछड़ा भी भक्त है, इसको कीर्तन से क्यों बाहर निकाल गया ? ऐसा लगता है इन लोगों के ह्रदय में गौ-भक्ति नहीं है, गौ-माता का माहात्म्य ये लोग नहीं जानते। जो गाय से विमुख है वो भक्त नहीं हो सकता, जो गाय से विमुख है वो देवता भी देवता कहलाने योग्य नहीं है। जयराम स्वामी  भी गौमाता के चरणों में भक्ति रखते थे, उनको जैसे ही ये बात पता लगी की गौ-माता को बाहर निकला गया है, वे दौड़ते हुए आये और बछडे को अन्दर लिया।
           बहिणाबाई का पति यह सब पसन्द नहीं करता था, बछड़े को लेकर घूमना, कीर्तन, कथा, सत्संग। आजकल का बहिणाबाई का व्यवहार ये सब उसे नहीं पसन्द आ रहा था। वो केवल कर्मकाण्डी था और भक्ति विहीन था। बहुत से लोग बहिणाबाई का मजाक उडाया करते, जिसके कारण रत्नाकर पाठक ब्राह्मण को क्रोध आता। उसे लगने लगा की उसके घर की इज्जत कम हो रही है। इसी बीच एक व्यक्ति ने रत्नाकर ब्राह्मण के कान भर दिए। रत्नाकर को क्रोध आया और उसने बहिणाबाई को बहुत मारा, बाँध कर रखा, कष्ट दिये। गौ और बछड़े ने चारा-पानी लेना बन्द कर दिया।
          यह बात जयराम स्वामी को पता लगी तो वे ब्राह्मण के घर आये और उसे समझाया- इन तीनों ने पूर्वजन्म में एकत्र अनुष्ठान किया था, इस बछड़े का अनुष्ठान पूर्ण होने पर वह देहत्याग करेगा। जितने शरीर हैं वे सब भगवान् के घर ही हैं चाहे वह देह मानव की हो अथवा पशु की। ब्राह्मण को बात समझ आ गयी। बहिणाबाई महान् पतिव्रता स्त्री थी, उसने किसी तरह का विरोध नहीं किया। वो चुपचाप जाकर बछड़े और गाय से लिपट गयी।
          हिरंभट जिनके घर में बहिणाबाई और उनके पति निवास करते थे, उन्हें लगा कि जयरामस्वामी ने अभी-अभी कहा की बछड़े का अनुष्ठान पूर्ण होने पर वो शरीर त्याग देगा। एक बछड़ा कैसे अनुष्ठान पूर्ण करेगा ? हिरंभट एक दिन श्लोक बोल रहे थे- मूकं करोति वचालम्। पंगु लंघयते गिरिम्।। आश्चर्य हुआ की बछड़े ने आगे का श्लोक अपने मुख से शुद्ध उच्चारण किया- यत्कृपा तमहं वंदे, परमानंद माधवम्। इस घटना से सबको महान आश्चर्य हुआ। बछड़े ने अपना सर बहिणाबाई की गोद में रखा और प्राण छोड़ दिया।
          अब सब लोगो को विश्वास हो गया की यह बछड़ा कोई पूर्वजन्म का महात्मा था। उसकी अंतिम यात्रा भजन गाते-गाते निकाली गयी। जिस क्षण से बछड़े ने प्राण छोड़ा उसके तीसरे दिन तक बहिणाबाई बेसुध अवस्था में पड़ी रही। चौथे दिन मध्यरात्री के समय एक तेजस्वी ब्राह्मण उसके स्वप्न में आया और कहने लगा- बेटी विवेक रखना सीखो,  विवेक और सावधानता कभी छोड़ना नहीं। अचानक बहिणाबाई उठकर बैठ गयी और सोचने लगी ये महात्मा कौन थे ?
         जयराम स्वामी अपने कथा, कीर्तन में सन्त श्री तुकाराम जी के पद (अभंग वाणी) गाया करते थे। उनके पदों में वर्णित तत्वज्ञान, वैराग्यवृत्ती, समाधान, व्यापक दृष्टी, न्याय नीती, शुद्ध चरित्र का आचरण बताने वाला भक्तिमार्ग बहिणाबाई को आकर्षित करने लगा। इस कारण से बहिणाबाई को सन्त तुकाराम जी के दर्शन की लालसा बढ़ने लगी, एक दिन सन्त तुकाराम जी से मिलान की तड़प बहुत अधिक बढ़ गयी। तुकाराम जी को बहिणाबाई का आध्यात्मिक सामर्थ्य अच्छी तरह ज्ञात हो गया। बछड़े की मृत्यु के सातवें दिन रविवार को कार्तिक वद्य पंचमी को (शके १५६९) जगतगुरु श्री तुकाराम महाराज ने स्वप्न में बहिणाबाई को दर्शन दिया, मस्तक पर हाथ रखा और कान में गुरुमंत्र का प्रसाद दिया- ‘राम कृष्ण हरि‘।
          बहिणाबाई अब सन्त हो गयी थी। दिन-रात गुरु प्रदत्त मंत्र- ‘राम कृष्ण हरि' का जप करती रहती। इस काल में सबको बहिणाबाई की भक्ति समझ आने लगी और बहुत भक्तों के झुण्ड बहिणाबाई के दर्शन को नित्य आने लगे, परन्तु पति रत्नाकर को यह बात पसन्द नहीं आयी। वो कहने लगा- तुकाराम जी तो छोटी जाती के हैं, उन्होंने ब्राह्मण स्त्री को गुरुदीक्षा कैसे दे दी ? ये सब पाखण्ड है। ऐसा कहकर वह पत्नी का त्याग करके वन को जाने की तैयारी करने लगा।

          रत्नाकर वेदांती कर्मठ ब्राह्मण और बहिणाबाई भोली-भाली भक्ति करने वाली स्त्री, पति को उसका मार्ग पसन्द नहीं था। वह तुकाराम जी, बहिणाबाई और पांडुरंग को अपशब्द कहने लगा, गालियाँ देने लगा। जिस समय की यह घटना है उस समय बहिणाबाई गर्भवती थी। बहिणाबाई महान् पतिव्रता स्त्री थी, गर्भवती अवस्था में भी पति ने उसे मारा परन्तु वह शांत बनी रही। बहिणाबाई के माता-पिता ने रत्नाकर को बहुत समझाया परन्तु उसका क्रोध शांत नहीं हो रहा था। वह घर से निकल कर वन में जाना चाहता था, परन्तु बहिणाबाई बहुत दु:खी हो गयी और प्रार्थना करने लगी की पति ही स्त्री का परमेश्वर है, पति के बिना अब मै कैसे रहूँगी ? सन्तों और भगवान् को भक्तों की अवस्था ज्ञात हो जाती है। बहिणाबाई की प्रार्थना भगवान् और गुरुमहाराज के कानों में पड़ी और एका-एक रत्नाकर के शरीर में भयंकर दाह उत्पन्न हो गया। औषधि से भी दाह कम नहीं हुआ, बहिणाबाई पति की सेवा में लगी रही। रत्नाकर को पश्चाताप होने लगा। उसे लगा कि कहीं हमने भगवान्, तुकाराम जी और भक्त की निंदा की है इसीलिए हमारी ऐसी अवस्था तो नही हुई ?
          रात्रि में रत्नाकर को स्वप्न हुआ और एक तेजस्वी ब्राह्मण ने उससे कहा- मुर्ख तुम सन्त शिरोमणि तुकाराम जी की निंदा मत करो, वे बहुत उच्च कोटि के अद्भुत सन्त हैं, सन्तों की जाती नहीं होती। तुकाराम जी सही अर्थ में जगतगुरु हैं और बहिणाबाई महान तपस्विनी है। तुम्हे यदि जीवित रहने की इच्छा है तो बहिणाबाई का त्याग मत करो और उसका अनादर मत करो। रत्नाकर ने चरणों पर मस्तक रखा और क्षमायाचना करने लगा। उसकी नींद खुल गयी और शरीर का दाह शांत हो गया। रत्नाकर ने भगवान् और सन्त तुकाराम को मन ही मन क्षमायाचना की और निश्चय कर लिया की  वह बहिणाबाई का आदर करेगा। इस घटना के बाद रत्नाकर की सन्त तुकाराम के चरणों में बहुत श्रद्धा हो गयी और बछड़े की माता सहित सब परिवार तुकाराम जी के दर्शन हेतु देहु (तुकाराम जी का गाँव)  गए।
          गुरु महाराज के दर्शन कर के बहुत आनन्द हुआ, इस समय बहिणाबाई की आयु मात्र २० वर्ष की थी। बहिणाबाई को देहु में आने के बाद कशी नाम की पुत्री हुई। बहिणाबाई की भक्ति दिन दिन बढ़ती गयी। तुकाराम महाराज के गाँव देहु में मम्बाजी नाम का एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ मठ में निवास करता था। बहिणाबाई और उसके पति ने मम्बाजी से मठ में रहने की जगह मांगी पर उसने मना कर दिया क्योंकि वह बहिणाबाई से द्वेष करता था क्योंकि उसका कहना था कि बहिणाबाई ने तुकाराम जी जैसे छोटी जाती के व्यक्ति को गुरु माना था। उसने बहिणाबाई और रत्नाकर के साथ आई गौमाता को अपने घर ले जाकर रखा, तीन दिन तक अन्न जल नहीं दिया क्योंकि वह जानता था कि बहिणाबाई का गौमाता पर बहुत स्नेह है। गौ-माता को बहुत ढूँढ़ा पर नहीं मिली। एक दिन मम्बाजी ने गौ-माता पर चाबुक से बहुत प्रहार किया।
          तुकाराम महाराज ने गौ-माता के शरीर पर किये गए चाबुक के फटके अपने शरीर के ऊपर ले लिए। तुकाराम जी सिद्ध कोटि के सन्त हो चुके थे और उनके चरणों के समस्त सिद्धियाँ उपस्तिथ रहती थीं परन्तु कभी भी उन्होंने सिद्धियों का प्रयोग नहीं किया, वे इन सब से दूर ही रहे। केवल हरिनाम, हरिकथा और सन्त गौ-सेवा में ही उन्हें सुख आता। गौ-माता पर संकट अर्थात धर्म पर संकट जानकार उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की- हे प्रभु ! गौ-माता का सब कष्ट हमारे शरीर पर आ जाये। गौ-माता पर लगी मार अपने शरीर पर ले ली। शिष्या बहिणाबाई तो महान् गौभक्त थी ही, तो गुरुमहाराज का क्या कहना ?
         देहु गाँव में सब भक्तों ने देखा कि सन्त तुकाराम की पीठ पर मार के निशान हैं, सब अस्वस्थ हो गए। जैसे ही सन्त तुकाराम के शरीर पर मार लगा उसी समय मम्बाजी के घर को आग लग गयी। सब लोगों ने देखा की गाय तो वही है, गौमाता को वहाँ से बाहर निकाला, बहिणाबाई और रत्नाकर के पास लाकर दिया। बहिणाबाई को बहुत कष्ट हुआ और जब उसे पता चला की गुरुमहाराज ने गौमाता के शरीर पर लगी मार अपने ऊपर ले ली तब उसे समझ आया की सन्त तुकाराम किस आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचे है। उसको समझा की हमारी विपत्ति तो गुरुमहाराज ने दूर की थी, पर हमारे परिवार की सदस्य ये गौमाता की समस्या भी इन्होंने अपनी मान कर दूर कर दी। इस गाय से गुरुमहारज का सीधा संबंध न होने पर भी तुकाराम जी ने उसका दुःख दूर किया। सन्तों का ह्रदय कैसा होता है उसने आज प्रत्यक्ष देख लिया।
          जगतगुरु श्री तुकाराम महाराज शके १५७१ फाल्गुन वद्य द्वितीया को शनिवार के दिन सदेह भगवान् श्रीकृष्ण के साथ वैकुण्ठ को पधारे, उस समय बहिणाबाई देहु से बाहर थीं। अंत दर्शन नहीं हुआ इसी कारण वे व्याकुल थीं और उन्होंने १८ दिन अन्न जल छोड़ दिया, अंत में तुकाराम महाराज ने उन्हें दर्शन दिया। सन्त बहिणाबाई की दो सन्तानें थीं- पुत्र विट्ठल और पुत्री कशी।
          अंतिम समय में सब परिवार शिरूर नामक स्थान में निवास करने चला गया। एक दिन बहिणाबाई का लगातार ध्यान चलता रहा, तीसरे दिन उन्हें सन्त तुकाराम का दर्शन हुआ और उनके द्वारा अभंग (पद) रचना की आज्ञा मिली। नदी में बहिणाबाई ने स्नान किया और जैसे ही बाहर निकली उनके मुख से पद निकलने लगे। ७३ वर्ष की आयु तक बहिणाबाई जीवित रहीं। बहिणाबाई सन्त सेवा और भक्ति के प्रताप से इतनी सिद्ध हो चुकी थीं की अंत समय में उन्होंने अपने पुत्र विट्ठल को बुलवा लिया और अपने पूर्व १३जन्मों की जानकारी देते हुए कहा- बेटा तुम पिछले बारह जन्मों से मेरे ही पुत्र थे और इस १३ वे जन्म में भी हो, परन्तु अब मेरा यह अंतिम जन्म है, परन्तु बेटा तुम्हारी मुक्ति के लिए और ५ जन्म लगेंगे। अंत समय पुत्र से संसार की बाते नहीं कीं, पुत्र को भजन, सन्त सेवा, गौ-सेवा करते रहने का उपदेश दिया। प्रतिपदा शके १६२२ को उन्होने ७३ वर्ष की अवस्था में देहत्याग किया। इनकी समाधि शिऊर में ही है।
         ऐसी महान् पतिव्रता, संसार में रहकर परमार्थ साध्य करने वाली, बच्चों को भजन में लगाने वाली, छल करने वाले पति का ह्रदय परिवर्तन करके उनको भी सन्तों के चरणों में लगाने वाली, गुरुदेव को साक्षात् श्री विट्ठल रूप मान कर सेवा करने वाली महान गुरु भक्ता और गौ भक्ता यह सन्त बहिणाबाई भक्ति की दिव्य-ज्योति हुई है।
                     "जय जय श्री राधे"

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला