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अखंड ब्रह्मचर्य व रासलीला- 3
उसने कटि की कछनी से मुरली निकाली और अधरों पर रख ली। मुरली ने सप्तम स्वर में मेरा ही क्लीं बीज गुंजारित करना प्रारम्भ किया। क्या? यह मेरा आह्वान कर रहा है या मुझे चुनौती दी जा रही है? मैं इस धरा पर उतर क्यों नहीं पाता हूँ? मेरे बीज का- काम बीज का स्वर गूँज रहा है और मैं सप्राण होने के स्थान पर शिथिल शरीर होता जा रहा हूँ। मेरी शक्ति, मेरा सम्मोह गगन में ही स्तब्ध होता जा रहा है। यह क्या है? कौन सी शक्ति है यह? इतना सम्मोहन तो मेरे अथवा मेरी प्रिया स्वयं रति के स्वर में भी नहीं।
राधा राधा राधा रासेश्वरी
राधा राधा राधा प्राणेश्वरी
वंशी से स्वर ने पुकारना प्रारम्भ कर दिया। वंशी क्रमशः अनेक-अनेक नारियों का नाम पुकारने लगी। मुझे साहस हुआ कि यह अपनी प्रेयसियों को पुकार रहा है तो अब मुझे अवसर मिलेगा। यह इस एकान्त में इस उद्दीपक वातावरण में उन्हें बुला रहा है तो मेरे सम्मोहन से अस्पृश्य नहीं रह सकता।
कुतूहलवश मैंने गगन से देखा समीप के जनपद की ओर। सहस्त्र-सहस्त्र नारियाँ दौड़ पड़ी थीं। वे किशोरियाँ, मैं मूर्ख था जो अब तक अप्सराओं को साथ न लाने के कारण खिन्न हो रहा था। इनमें से एक के सौन्दर्य का सहस्त्रांश भी तो स्वर्ग की किसी सुन्दरी में नहीं। मेरे अदृश्य करों से कब मेरा सुमन धनुष छूट गिरा, मुझे स्वयं पता नहीं। मैं धनुष का करता क्या? मेरे किसी शर में यह शक्ति, यह सम्मोहन, यह तीक्ष्णता नहीं जो इनमें से प्रत्येक के कटाक्षपात में है। इनकी उपस्थिति में मन्मथ को किसी का मनोमन्थन करने के लिये शर-सन्धान कहाँ आवश्यक है। यहाँ तो मेरे पञ्च बाण व्यर्थ हैं।
सब अस्त-व्यस्त भागी आ रही थीं। किसी ने गोदोहन करते दोहनी पटक दी थी और किसी ने दूध को अग्नि पर उफनता त्याग दिया था। अनेक अपना श्रृंगार कर रही थीं- एक नेत्र में अञ्जन, एक चरण में नूपुर अथवा पदाभरण कर या कर्ण में डाले वे दौड़ी आ रही थीं। अनेक ने पदों में अलक्तक लगाना प्रारम्भ किया था। आर्द्र अलक्तक के पद-चिन्ह वे धरा पर बनाती आ रही थीं। किसी का उत्तरीय गिर पड़ा था। किसी का वेणी-ग्रन्थन अपूर्ण था।
(साभार-नन्दनन्दन से)
क्रमश:
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