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भाग- 13
गोपियाँ श्रीकृष्ण की स्वकीया थीं या परकीया, यह प्रश्न भी श्रीकृष्ण के स्वरूप को भुलाकर ही उठाया जाता है। श्रीकृष्ण जीव नहीं हैं कि जगत् की वस्तुओं में उनका हिस्सेदार दूसरा जीव भी हो। जो कुछ भी था, है और आगे होगा-उसके एकमात्र पति श्रीकृष्ण ही हैं।अपनी प्रार्थना में गोपियों ने और परीक्षित् के प्रश्न के उत्तर में श्रीशुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी, गोपियों के पति, उनके पुत्र, सगे-सम्बन्धी और जगत् के समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मारूप से, परमात्मारूप से जो प्रभु स्थित हैं-वे ही श्रीकृष्ण हैं। कोई भ्रम से, अज्ञान से भले ही श्रीकृष्ण को पराया समझे वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं, सब उनके हैं।
श्रीकृष्ण की दृष्टि से, जो कि वास्तविक दृष्टि है, कोई परकीया है ही नहीं, सब स्वकीया हैं, सब केवल उनका अपना ही लीला विलास है, सभी उनकी स्वरूपभूता आत्मस्वरूपा अन्तरंगा शक्तियाँ हैं। गोपियाँ इस बात को जानती थीं और स्थान-स्थान पर उन्होंने ऐसा कहा भी है।
ऐसी स्थिति में ‘जारभाव’ और ‘औपपत्य’ की कल्पना ही कैसे हो सकती है ? गोपियाँ परकीया नहीं थीं, स्वकीया थीं परंतु उनमें परकीया भाव था। परकीया होने में और परकीया भाव होने में आकाश-पाताल का अन्तर है।
परकीया भाव में तीन बातें बड़ें महत्त्व की होती हैं- (1) अपने प्रियतम का निरन्तर चिन्तन,
(2) मिलन की उत्कृट उत्कण्ठा और
(3) दोष-दृष्टि का सर्वथा अभाव।
स्वकीया भाव मे निरन्तर पास रहने के कारण ये तीनों बातें गौण हो जाती हैं परंतु परकीया भाव में ये तीनों भाव उत्तरोत्तर बढ़ते रहते हैं। कुछ गोपियाँ जारभाव से श्रीकृष्ण को चाहती थीं। इतना ही अर्थ है कि वे श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करती थीं, मिलन के लिये उत्कण्ठित रहती थीं और श्रीकृष्ण के प्रत्येक व्यवहार को प्रेम की आँखों से देखती थीं।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)
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