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भाग- 17

राजा परीक्षित ने अपने प्रश्नों में जो शंकाएँ की हैं, उनका उत्तर प्रश्नों के अनुरूप ही अध्याय29 के श्लोक 13 से 16 तक और अध्याय 33 के श्लोक 30 से 37 तक श्रीशुकदेवजी ने दिया है। उस उत्तर से शंकाएँ तो हट गयी हैं, परंतु भगवान की दिव्यलीला का रहस्य नहीं खुलने पाया सम्भवतः उस रहस्य को गुप्त रखने के लिये ही 33 वें अध्याय में रासलीला-प्रसंग समाप्त कर गया।

वस्तुतः इस लीला के गूढ़ रहस्य की प्राकृत जगत् में व्याख्या की भी नहीं जा सकती क्योंकि यह इस जगत् की क्रीड़ा ही नहीं है। यह तो उस दिव्य आनन्दमय-रसमय राज्य की चमत्कारमयी लीला है, जिसके श्रवण और दर्शन के लिये परमहंस मुनिगण भी सदा उत्कण्ठित रहते हैं और थोड़ा विचार करके देखने से यह सर्वथा सुसंगत और निर्दोष सिद्ध होता है। भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके ऐसी विमल बुद्धि दें, जिससे हम लोग इसका कुछ रहस्य समझने में समर्थ हों।

रासपन्चाध्यायी के पाठकों को इतना तो निश्चय रूप से अवश्य ही मान लेना चाहिये कि इसमें लौकिक कामगन्ध की लेशमात्र भी कल्पना नहीं है। यह विभूति युक्त दिव्य चिन्मय पूर्ण शक्ति के साथ सच्चिदानन्दघन परिपूर्णतम भगवान का अप्राकृत और अचिन्त्य पवित्रतम प्रेम-रस का महास्वादन है। इसी से श्रीशुकदेवजी ने इस रासलीला के श्रवण-वर्णन का महान तथा अपूर्व फल बतलाया है।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं -
‘भगवान की इस रासक्रीड़ा का जो संशय रहित मन से श्रद्धा के साथ श्रवण और कीर्तन करेगा, वह शीघ्र ही भगवान की प्रेमाभक्ति-पराभक्ति को प्राप्त होगा और उसके हृद्रोग - काम का सर्वथा विनाश हो जायगा’

यथार्थ में भगवान की इस दिव्य लीला के वर्णन का यही प्रयोजन है कि जीव गोपियों के उस अहैतुक प्रेम का, जो स्व-सुख की वान्छा से रहित केवल श्रीकृष्ण को ही सुख पहुँचाने के लिये है, स्मरण करे और उसके द्वारा भगवान के रसमय दिव्य लीला लोक में भगवान के अनन्त प्रेम का अनुभव करे। अतः रासपन्चाध्यायी का अध्ययन करते समय किसी प्रकार की भी शंका न करके इस भाव को जगाये रखना चाहिये और श्रद्धायुक्त हृदय से इसे भगवान की पवित्रतम लीला समझकर ही पढ़ना-सुनना चाहिये।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

जय श्री राधे राधे

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