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चीरहरण रहस्य- भाग 2

एक वाक्य में-उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान के चरणों में सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणों के स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करने के लिये उनका आवरण भंग कर देने की आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरूरी था और यही काम भगवान श्रीकृष्ण ने किया। इसी के लिये वे योगेश्वरों के ईश्वर भगवान अपने मित्र ग्वालबालों के साथ यमुना तट पर पधारे थे।

साधक अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करने वाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब भगवान स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करने वाले को स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य है-पूर्ण समर्पण की तैयारी! उसे पूर्ण तो भगवान ही करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण यों तो लीला पुरुषोत्तम हैं फिर भी जब लीला प्रकट करते हैं, तब वे मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता परंतु हृदय की निष्कपटता, सच्चाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी हलका कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादा का उल्लंघन करके निरावरण-स्नान करती थीं। यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित्त भी करवाया। जो लोग भगवान के प्रेम के नाम पर विधि का उल्लंघन करते हैं, उन्हें यह प्रसंग ध्यान से पढ़ना चाहिये और भगवान शास्त्रविधि का कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये।

वैसी भक्ति का पर्यवसान रागात्मि का भक्ति में है और रागात्मि का भक्तिपूर्ण समर्पण के रूप में परिणत हो जाती है। गोपियों ने वैधी भक्ति का अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मि का भक्ति से भरा हुआ था ही। अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। गोपियों ने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनों की परवा नहीं की, उन्हीं की प्राप्ति के लिये ही उनका यह महान अनुष्ठान था।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

क्रमश:

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