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अखंड ब्रह्मचर्य व रासलीला- 2

वृन्दावन पहुँचकर मुझे लगा कि मेरा निर्णय उचित था। वसन्त के स्थान पर शरद ऋतु की वह प्रथम पूर्णिमा मेरे शक्ति-वर्धन में कहीं अधिक समर्थ थी। सम्पूर्ण वन मेरे सम्मोहन-पुष्प मल्लिका से मण्डित था। उसकी मादक सुरभि लेकर मन्द-मारुत अणु-अणु को उत्तेजित कर रहा था। भ्रमर, पक्षी, पशु सभी मेरे प्रभाव से उन्मत्त प्रणय-केलि में तल्लीन हो रहे थे।

सायंकाल का समय सूर्यास्त हो चुका था। दिशायें कुंकुमारुण हो रही थीं। अनुरागपुर अम्बर में उमड़ पड़ा था।

इसी समय एक एकाकी किशोर वन में आया। मैं उसे देखते ही चौंक गया। मेरे समान ही अतसीकुसुम श्याम किंतु उसके अंगो का सौकुमार्य देखकर मेरा अपना सुन्दर रहने का गर्व गलित हो गया। अब तो मैं अनंग हूँ किंतु जब अंग था इतनी सुषुमा, इतनी शोभा तो मुझमें कभी नहीं थी। यदि कहीं मैं पराजित हुआ तो इसी कुमार को पिता बनाऊँगा। कुछ तो इस सौन्दर्य राशि का सीकर इसके पुत्र को प्राप्त होगा।

सघन घुंघराली अलकों पर लहराता मयूरपिच्छ, भाल पर गोरोचन का तिलक, कण्ठ में बनमाला। वह पीताम्बर परिधान हँसता आया और मैंने देखा कि सम्पूर्ण प्रकृति में मेरा सम्मोहन समाप्त हो गया। पशु, पक्षी, भ्रमर सब अपनी प्रणय-केलि भूलकर उसी को अनिमेष देखने लगे। मैं इधर-उधर देखता रहा, कहीं तो मेरा प्रभाव नहीं रहा। मुझे अपने पर झुंझलाहट हुई। कुछ अप्सरायें तो मुझे लानी हीं थीं....भूल हुई।

सहसा वह प्रफुल्ल पारिजात के नीचे एक शिलातल पर बैठ गया अपने वाम उरु पर दक्षिण पाद स्थापित करके। पूर्णचन्द्र बिम्ब का पूर्ण क्षितिज से ऊपर उठा इसी समय। अत्यन्त सुकुमार कुंकुमारुण चन्द्रबिम्ब जैसे कुंकुम भूषित सिन्धुसुता का इस शशि की सहोदरा का श्रीमुख हो। बन का पत्ता-पत्ता चमक उठा। दुग्धोज्वल माल्लिका सुमन किंचित अरुणाभ हो उठे। कालिन्दी का पुलिन और जल सब अत्यन्त शोभा सम्पन्न हो गये।

शरद ऋतु की सन्ध्या इतनी सुषमा, इतना उद्दीपक वातावरण,इतनी सहायक परिस्थिति मुझे पूर्ण प्रयत्न करके भी सृष्टि में प्राप्त नहीं हुई थी। मैं व्याकुल हो उठा अप्सरायें तो दूर, कोई भिल्लकुमारी भी होती तो मैं अभी इस गोप कुमार को देख लेता।

उसने अत्यन्त मुग्ध भाव से शशि को अपलक देखा। जैसे सतृष्ण दृगों से अपनी किसी प्रेयसी के मुख का स्मरण कर रहा हो। मैं स्पष्ट स्वीकार कर लूँ कि मनोभव होने पर भी मैं उसके मानस का स्पर्श नहीं कर पा रहा था। ऐसा अनेक बार हुआ है। ऋषि-मुनियों के मन में भी मैं अपने सम्मोहन शर की शक्ति से ही प्रवेश पाता हूँ।
(साभार-नन्दनन्दन से)

क्रमश:

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