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अखंड ब्रह्मचर्य व रासलीला- 7

‘प्रिय दुराग्रह मत करो।तुमने जो पति, पुत्र, पिता की सेवा स्त्री का परम धर्म बतलाया है, तुम धर्मज्ञ हो, अतः स्वयं कह दो कि तुम्हारे ये वचन तुम्हारे चरणों की सेवा में सार्थक नहीं होते? तुम्हीं सबके परम प्रेष्ठ आत्मा नहीं हो? समस्त प्राण धारियों के आत्मा तुम,तुम्हारी सेवा ही तो सबकी सच्ची सेवा है?'

मैं स्तम्भित सुनता रहा। मस्तक झुकाया मैंने। भले मैं गर्ववश आया और पराजित हुआ किंतु इन परम पुरुष के पावन पदों का साक्षात्कार पा सका। ये परम पुरुष अन्य में इतना संयम, इतनी सामर्थ्य सम्भव ही नहीं है। अब तो ये कृपा करें, भगवान पुरारि का प्रसाद उनका वरदान सार्थक हो। इनका पुत्रत्व चाहिए मुझे किंतु क्या ये इतने अकरुण हैं? ये अवनि पर अवस्थित दिव्य देहा मेरी मातृ स्थानीया किशोरियाँ,ये रुदन करतीं, नखमणि से भूमि कुरेदती प्रार्थना कर रही हैं-

'जो विद्वान हैं, विवेकी हैं, ज्ञानी हैं, वे सब तो तुममें सदा प्रीति करते हैं। ये संसार के बन्धन, विपत्ति, क्लेश देने वाले पति पुत्र पितादि से क्या प्रयोजन? अतः कमल लोचन हम पर प्रसन्न हो जाओ।बहुत समय से हमने आशा लगा रखी है।इस आशा लता का उन्मूलन न करो।

यह आशा हमारे हृदय में तुमने स्वयं अंकुरित की है। स्वयं अपने हास्य, लीला-विलास, वंक विलोकन से सींचकर तुमने इसे बढ़ाया है। तुमने अपने भुवन मोहन वंशीरव से हमारा चित्त छीन लिया और अब कहते हो कि हम लौट जायँ?

हम कैसे लौट जायँ? हमारे पद तुम्हारे समीप से एक पद हटते नहीं। कहाँ लौट जायँ? तुम्हारे अतिरिक्त तो हमें संसार सूना दीखता है। क्या करें कहीं जाकर? हमारे चित्त एक पल को तुम्हारे पादपद्मों को छोड़ और कुछ स्मरण नहीं कर पाते।

पुरुष भूषण सब त्यागकर, सब सम्बन्ध भूलकर केवल तुम्हारी उपासना की आशा से हम आयी हैं। हम पर प्रसन्न हो जाओ।तुम सबके विपत्ति विनाशक हो। हम आर्त अबलाओं को अपनी दासियाँ स्वीकार कर लो।

तुम्हारे सुन्दर स्मित से हमारे अन्तर में तुम्हारी प्राप्ति का प्रचण्ड वाडव प्रज्वलित हो उठा है। तुम तो व्रज के भय, दुःख को दूर करने के लिये प्रकट हुए हो। हमारे इस अन्तस्ताप को अपने अधरामृत से सिञ्चित करके शान्त कर दो।

प्रियतम! तुम हमें अपनी प्राप्ति से रोक नहीं सकते। केवल संसार तुम्हें निष्ठुर कहेगा। हमारे हृदयों में और धैर्य नहीं है। तुम्हारी अपेक्षाग्नि असह्य है। हम तो अभी तुम्हारा ध्यान करके शरीर त्याग देंगी और तुम्हें प्राप्त कर लेंगी किंतु प्यारे प्रीति की मर्यादा सदा को मिट जायगी। लोग कहेंगे कि व्रजराजकुमार के सम्मुख उनकी प्रेयसियाँ तड़प-तड़पकर मरीं और ........। अब अपना लो श्यामसुन्दर'
(साभार-नन्दनन्दन से)

क्रमश:

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