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भाग- 16

यदि यह हठ ही हो कि श्रीकृष्ण का चरित्र मानवीय धारणाओं और आदर्शों के अनुकूल ही होना चाहिये तो इसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं है। श्रीकृष्ण की अवस्था उस समय दस वर्ष के लगभग थी जैसा कि भागवत में स्पष्ट वर्णन मिलता है। गाँवों में रहने वाले बहुत से दस वर्ष के बच्चे तो बिना कपड़े पहने ऐसे ही घूमते रहते हैं। उन्हें कामवृत्ति और स्त्री पुरुष सम्बन्ध का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता। लड़के-लड़की एक साथ खेलते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, त्योहार मनाते हैं, गुड़ुई-गुड़ुए की शादी करते हैं, बारात ले जाते हैं और आपस में भोज-भात भी करते हैं, गाँव के बड़े-बूढे लोग बच्चों का यह मनोरन्जन देखकर प्रसन्न ही होते हैं, उनके मन में किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं आता। ऐसे बच्चों को युवती स्त्रियाँ भी बड़े प्रेम से देखती हैं, आदर करती हैं, नहलाती हैं, खिलाती हैं। यह तो साधारण बच्चों की बात है।

श्रीकृष्ण जैसे असाधारण श्री शक्ति सम्पन्न बालक जिनके अनेकों गुण सद्गुण बाल्यकाल में ही प्रकट हो चुके थे, जिनक सम्मति, चातुर्य और शक्ति से बड़ी-बडी विपत्तियों से व्रजवासियों ने त्राण पाया था- ऐसे बालक श्रीकृष्ण पर बृज गोपियों का,उनके पति वहाँ की स्त्रियों, बालिकाओं और बच्चों का कितना स्नेह, कितना आदर रहा होगा - इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनके सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य से आकृष्ट होकर गाँव की बालक-बालिकाएँ उनके साथ ही रहती थीं और श्रीकृष्ण भी अपनी मौलिक प्रतिभा से राग, ताल आदि नये-नये साधनों से उनका मनोरन्जन करते थे और उन्हें शिक्षा देते थे। ऐसे ही मनोरन्जन में से रासलीला भी एक थी, ऐसा समझना चाहिये। जो श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य समझते हैं, उनकी दृष्टि में भी यह दोष की बात नहीं होनी चाहिये।

वे उदारता और बुद्धिमानी के साथ भागवत में आये हुए ‘काम’, ‘रति’ आदि शब्दों का ठीक वैसा ही अर्थ समझें, जैसा उपनिषद् और गीता में इन शब्दों का अर्थ होता है।वास्तव में गोपियों के परम त्यागमय प्रेम का ही नामान्तर ‘काम’ है -

‘प्रमैव गोपारामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्’
और
भगवान श्रीकृष्ण का आत्मरमण अथवा उनकी दिव्य क्रीडा ही ‘रति’ है -
‘आत्मनि यो रममाणः’, ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्।’ इसीलिये इस प्रसंग में स्थान-स्थान पर उनके लिये विभु, परमेश्वर, लक्ष्मीपति, भगवान, योगेश्वरेश्वर, आतमाराम, मन्मथमन्मथ, अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् आदि पद आये हैं - जिससे किसी को कोई भ्रम न हो जाय।
(श्री राधामाधव चिंतन से)

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