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भाग- 8

श्रीगोपीजन साधना इसी उच्च स्तर में परम आदर्श थीं। उनकी सारी वृत्तियाँ सर्वथा श्रीकृष्ण में ही निमग्न रहती थीं। इसी से उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म-सब को छोड़कर, सबका उल्लंधन करके एकमात्र परमधर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को ही पाने के लिये अभिसार किया था। उनका यह पति-पुत्रों का त्याग, यह सर्वधर्म का त्याग ही उनके स्तर के अनुरूप स्वधर्म है।

इस ‘सर्वधर्मत्याग’ रूप स्वधर्म का आचरण गोपियों जैसे उच्च स्तर के साधकों में ही सम्भव है क्योंकि सब धर्मों का यह त्याग वे ही कर सकते हैं, जो उसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकने के बाद इसके परम फल अनन्य और अचिन्त्य देवदुर्लभ भगवत्प्रेम को प्राप्त कर चुकते हैं। वे भी जान-बूझकर त्याग नहीं करते। सूर्य का प्रखर प्रकाश हो जाने पर तैल दीपक की भाँति स्वतः ही ये धर्म उसे त्याग देते हैं। यह त्याग तिरस्कार मूलक नहीं, वरन् तृप्ति मूलक है। भगवत्-प्रेम की ऊँची स्थिति का यही स्वरूप है।

जिसको भगवान अपनी वंशीध्वनि सुनाकर नाम ले-लेकर बुलायें, वह भला, किसी दूसरे धर्म की ओर ताककर कब और कैसे रूक सकता है।
रोकने वालों ने रोका भी, परंतु हिमालय से निकलकर समुद्र में गिरने वाली ब्रह्मपुत्र नदी की प्रखर धारा को क्या कोई रोक सकता है? वे न रुकीं, नहीं रोकी जा सकीं। जो गोपियाँ जाने में समर्थ न हुईं। उनका शरीर घर में पड़ा रह गया, भगवान के वियोग-दुःख से उनके सारे कलुष धुल गये, ध्यान में प्राप्तभगवान के सानिध्य से उनके समस्त पुण्यों का परम फल प्राप्त हो गया और वे भगवान के पास सशरीर जाने वाली गोपियों के पहुँचने से पहले ही भगवान के पास पहुँच गयीं। भगवान में मिल गयीं।

यह शास्त्र का प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि पाप-पुण्य के कारण ही बन्धन होता है और शुभाशुभ का भोग होता है। शुभाशुभ कर्मों के भोग से जब पाप-पुण्य दोनों नाश हो जाते हैं, तब जीव की मुक्ति हो जाती है। यद्यपि गोपियाँ पाप-पुण्य से रहित श्रीभगवान की प्रेम-प्रतिमास्वरूपा थीं, तथापि लीला के लिये यह दिखाया गया है कि अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास न जा सकने से उनके विरहानल से उनको महान संताप हुआ।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

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