अखण्ड ब्रह्मचर्य व रास लीला 1

अखंड ब्रह्मचर्य व रासलीला-1

मैं हूँ रति-पति कामदेव। भगवान शिव ने मुझे भस्म करके अनंग बना दिया। यह मेरे सामर्थ्य का वर्धक ही बना। मैं अदृश्य रहकर अधिक आक्रामक हो गया। उस दिन देवर्षि ने मुझे देवलोक में देखा और हँस पड़े। बोले- 'सुमन सुकुमार देवता अब इस नन्दन कानन में ही बने रहना। धरा की ओर देखने की धृष्टता भी मत करना'

'क्या पृथ्वी पर कोई अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया है?' मैं उत्तेजित हो गया था- 'कोई पुरारि से भी प्रबल तपस्वी पैदा हो गया वहाँ? सृष्टिकर्त्ता अपने से अधिक समर्थ संयमी के सृजन में सफल हो गये'

'एक गोप कुमार आ गया है भारत धरा पर वृन्दावन में' देवर्षि ने व्यंग किया- 'वह दर्पितों की बहुत दुर्गति करता है। कहीं भूलकर उधर मत भटक जाना। दुर्मद दलन का वह व्रती- उससे दूर ही रहो, उसी में दैव को सानुकूल समझो।दुःख पाओगे यदि उधर गये'

'गोपकुमार? कितने युगों से वह तपो-निरत है' मैं (रति पति) अंहकार से उद्दीप्त पूछ बैठा।

'वह तप नहीं करता,गायें चराता है और व्रज की बालिकाओं से परिहास भी कर लेता है' देवर्षि का व्यंग मैंने समझा नहीं। वे चले गये यह कहकर- 'तुम्हारे सम्पूर्ण पौरुष को पराजित करने का अच्छा अभ्यास है उसे'

मुझे यह असह्य हो गया। पुष्पधन्वा को कोई गोपकुमार पराजित करेगा? वह भी कोई तपस्वी नहीं बालक और यदि वह बालिकाओं से परिहास करता है तो मेरे विकार उसमें विद्यमान हैं, यह तो पूर्व निश्चित हो गया। मैं उसे देखूँगा। किसी मानव-कुमार को पराजित करने के लिये केवल मेरा धनुष पर्याप्त है। सहायकों को साथ लेना अनावश्यक लगा मुझे। वसन्त, मलय-मारुत, अप्सरायें आदि मैंने साथ नहीं लीं।
(साभार-नन्दनन्दन)

क्रमश:

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