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चीरहरण रहस्य- भाग 5

एक बात बड़ी विलक्षण है। भगवान के सम्मुख जाने के पहले जो वस्त्र समर्पण की पूर्णता में बाधक हो रहे थे-विक्षेप का काम कर रहे थे, वे ही भगवान की कृपा, प्रेम, सांनिध्य और वरदान प्राप्त होने के पश्चात् ‘प्रसाद’ स्वरूप हो गये। इसका कारण क्या है? इसका कारण है, भगवान का सम्बन्ध। भगवान ने अपने हाथ से उन वस्त्रों को उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधे पर रख लिया था।साधारण सी साड़ियाँ भगवान के कंधे पर चढ़कर, उनका संस्पर्श पाकर कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्र-कृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है।

असल में यह संसार तभी तक बाधक और विक्षेप जनक है, जब तक यह भगवान से सम्बन्ध और भगवान का प्रसाद नहीं हो जाता । उनके द्वारा प्राप्त होने पर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरूप हो जाता है। उनके सम्पर्क में जाकर माया विशुद्ध विद्या बन जाती है। संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्दरस से परिपर्ण हो जाते हैं।

तब बन्धन का भय नहीं रहता। कोई भी आवरण हमें भगवान के दर्शन से वंचित नहीं रख सकता। नरक नरक नहीं रहता, भगवान का दर्शन होते रहने के कारण वह वैकुण्ठ बन जाता है। इस स्थिति में पहुँचकर भी बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुष के समान आचरण करते हुए से दीखते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की आपनी होकर गोपियाँ पुनः वे ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं परंतु गोपियों की दृष्टि में अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं, वस्तुतः वे हैं भी नहीं, अब तो ये दूसरी ही वस्तु हो गये हैं। अब तो ये भगवान के पावन प्रसाद हैं, पल–पल पर भगवान का स्मरण कराने वाले भगवान के परम सुन्दर प्रतीक हैं। इसी से उन्होंने उन्हें स्वीकार भी किया। उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादा के ऊपर थी, फिर भी उन्होंने भगवान की इच्छा से मर्यादा स्वीकार की। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पस्ट हो जाता है कि भगवान की यह चीर हरण-लीला भी अन्य लीलाओं की भाँति उच्चतम मर्यादा से परिपूर्ण है।

भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं, जिनमें उनकी लीला का वर्णन हुआ है। उनमें से एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है, जिसमें श्रीकृष्ण की भगवत्ता का वर्णन न हो। श्रीकृष्ण ‘स्वयं भगवान’ हैं, यही बात सर्वत्र मिलती है। जो श्रीकृष्ण को भगवान नहीं मानते, यह स्पष्ट है कि वे उन ग्रन्थों को भी नहीं मानते। और जो उन ग्रन्थों को ही प्रमाण नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओं के आधार पर श्रीकृष्ण-चरित्र की समीक्षा करने का अधिकार भी नहीं।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

क्रमश:

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