रूप क्लाजी

सन्त परिचय, पोस्ट-3
"रूपकलाजी"
          वैष्णव रत्न रूपकला जी न केवल रामकथा वाचक थे, बल्कि अयोध्या के उच्चकोटि के पहुँचे हुए संतो में से एक थे। इनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों एवं प्रभु की असीम कृपानुभूतियों की चर्चा जब होती है तो इनके जीवन मे घटित अनेक अदृभुत एवं चमत्कारिक घटनाओं के चित्र मानस-पटलपर स्पष्ट रूप से उभरने लगते हैं। इनके प्रभाव से हजारों पथ-भ्रष्ट, भ्रांत नास्तिकों ने भगवान् की सत्ता में विश्वास करके सन्मार्ग का अवलम्बन किया, हजारों नर नारियों ने मांसाहार छोड़ा और शुद्ध सात्त्विक जीवन की ओर बढ़े।
         गृहस्थ जीवन में अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए कर्मचेष्टाओं में प्रवृत्त होते हुए भी निष्काम, निरासक्त रूप से भगवान् का भजन एवं भक्ति-साधना में लीन होकर प्रभु के समीप बैठा जा सकता है भक्ति-रस में डूबा जा सकता है, इसके ज्वलंत उदाहरण हैं श्रीरूपकला जी महाराज। श्री रूपकला जी की  भक्तमाल टीका बहुत प्रसिद्ध है।
         श्री रूपकला जी का पूरा नाम श्रीसीताराम शरण भगवान् प्रसाद था। पहले इनका नाम केवल भगवान् प्रसाद था परन्तु बाद में जब उन्होंने श्रीराम मंत्र की दीक्षा ग्रहण की तब गुरुदेव जी ने उनके नाम के आगे सीताराम शरण जोड़ दिया। रूपकला नाम इन्हें भागलपुर गुरुहट्टा के महंत श्री हंसकल जी से प्राप्त हुआ। यह सुखद संयोग ही कहा जायगा कि आप निरन्तर अपने जीवन मे प्रभु श्रीसीताराम के शरण में ही रहे और फलत: भगवान् के अनुपम ‘प्रसाद‘ के अधिकारी बने।
          इनका जन्म बिहार में श्रावण-कृष्ण नवमी को सन् १८४० ई में हुआ था। श्रीभक्तमाल में लिखित उनके संक्षिप्त जीवन के अनुसार उनके पिता मुन्शी तपस्वीराम भक्तमाली जी स्वामी रामचरण दास जी के शिष्य थे।
          श्रीरूपकला जी २२ वर्ष कीअवस्था मे सन् १८६३ ई में ३० रु पर पटना के सब-इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स पद पर नियुक्त हुए, कालान्तर में इन्होंने शाहाबाद, क्या, चम्पारण, सारन, मुजफ्फरपुरपुर, दरभंगा आदि जिलो मे कार्यरत होते हुए पूर्णिया नार्मल स्कूल में हेडमास्टर पद कों सुशोभित किया। सन् १८६७ ई में १०० रु पर डिप्टी इस्पेक्टर आफ स्कूल्स बने और लगभग १२ वर्षो तक मुंगेर में कार्यरत रहे। सन् १८७८ ई में वेतनवृद्धि हुई और २०० रु पाने लगे। सन् १८८१ ई में भागलपुर गये और सन् १८८४ ई में इनकी उन्नति गजटेड पोस्ट पर ३०० रु मासिकपर हुई। सन् १८८६ ई में ये पटना आ गये।
           इस प्रकार अपनी कर्व्यकुशलता, निष्ठा एवं लगन के कारण इन्होंने सरकारी सेवा में अपनी दक्षता प्रमाणित की। विलक्षण बात यह थी कि इनके सारे कार्य फलेच्छारहित, राग-द्वेष एवं अभिमानरहित होते थे, जिन्हें गीता के अनुसार सात्विक कर्म कहा जाता है। परिणामत: इनकी छवि एक सात्विक 'कर्मयोगी’ की बनी। इसके साथ ही श्री रूपकलाजी ने समय निकालकर गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस का नियमित पाठ, सत्संग, भजन-कीर्तन  एवं भगवन्नाम-जप का आश्रय लिया। स्वयं राममय होते हुए यह एक उच्चकोटि के मानस-मर्मज्ञ के रूप में पूजित हुए।
           एक बार कर्ज चुकाने के लिये इनको कुछ रुपयो की बहुत आवश्यकता थी। सर्वत्र चेष्टा करके हार गये, किंतु कहीं भी रुपयों का प्रबंध होता नजर नहीं आया। तब श्री रूपकला जी भगवान् पर  भरोसा करके बैठ गये। उसी दिन संध्या-समय आपके पास एक अपरिचित व्यक्ति आया और उसने सबके सामने आपके हाथों में एक लिफाफा देकर कहा- आपसे कुछ बातें करनी है, इसे अपने पास रखिये, मैं अभी आता हूँ। लिफाफा यों ही इनके पास पड़ा रहा। वह आदमी फिर लौटकर नहीं आया। अन्त में जब खोला, तब उसमें उतने ही रुपये मिले, जितने की इन्हे जरूरत थी।
            बात अक्टूबर १८९३ ई की है। एक अद्भुत घटना घटी। श्रीरुपकला जी महाराज को एक विलक्षण अनुभूति हुई- एक आत्मानुभव-प्रभु की असीम कृपानुभूति। एक दिन प्रात: इन्हें बाढ़-जिला पटना के एक स्कूल मे निरीक्षण हेतु इस्पेक्टर आफ स्कूल्स, अंग्रेज अधिकारी मि. स्टैग साहब के साथ जाना था। प्रभु के ध्यान में निमग्न होने के कारण रूपकला जी स्टेशन नहीं पहुँच सके। जब पहुँचे तब तो गाडी जा चुकी थी। स्टेशनमास्टर से भेंट हुई पर कुछ नहीं हो पाया। जाना बहुत आवश्यक था पर अब बहुत समय बीत गया था, शाम हो चुकी थी। दूसरे दिन जब इंस्पेक्टर मिस्टर स्टैग लौटकर आये तब श्रीरूपकला जी उनसे मिलने गये और क्षमा-याचना की कि देर हो जाने के कारण गाड़ी छूट गयी और वे उनके साथ न जा सके।
         इंस्पेक्टर साहब अत्यन्त आश्चर्यचकित हुए और उनसे पूछा कि आपकी तबियत तो ठीक है न ? आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, आप तो बराबर हमरे साथ थे, बाढ़ गाँव के स्कूल भी गये, वहाँ निरीक्षणकार्य भी सम्पन्न किया और अपने हस्ताक्षर भी किये। मिस्टर स्टैग ने अपने अर्दली को बुलाया और पूछा कि क्या श्रीरूपक्लस्वी कल हम लोगो के साथ बाढ़ स्कूल नहीं गये थे ? अर्दली ने कहा कि आप तो साहब के साथ-साथ थे और अपना हस्ताक्षर भी बनाया है। क्या आपको याद नहीं ?
         बस, फिर क्या था, भक्त श्रीरूपकला जी इतने भावविह्वल हो गये कि रोने लगे। समझ में आ गया की मेरा रूप धारण करके श्रीरघुवीर ही साहब के साथ गए थे। सोचने लगे की प्रभु को मेरे कारण कष्ट उठाना पड़ा। तत्काल हाथ जोड़े और इंस्पेक्टर साहब से प्रार्थना की कि अब उन्हें कार्यमुक्त का दें तो अति कृपा होगी। इंस्पेक्टर को समझ नहीं आ रहा था की इन्हें हो क्या गया है ? साहब ने बहुत समझाया कि आप कुछ दिन की छुट्टी पर जायें लेकिन कार्यमुक्त होने की बात छोड़ दें, पर वे क्या मानने वाले थे ?
           ३० वर्षो से भी अधिक सरकारी नौकरी करने के पश्वात् सन् १८९३ ई में उन्होने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इन्होंने जब अपना पद- परित्याग किया उस समय उनकी अवस्था केवल ५४ वर्ष की थी। श्री रूपकला जी ने दृढ निश्चय किया कि अब मैं प्रभु श्रीराम की नगरी श्रीअयोध्याजी जाऊँगा और सरकारी सेवा त्यागकर युगल सरकार श्रीसीतारामजी की सेवा में लग जाऊँगा। इसी आशय से श्री रूपकला जी श्रीअवधधाम पधारे; क्योंकि उक्त आत्मानुभव ने उन्हे आन्दोलित कर दिया था, बेचैन कर दिया था अपने प्रभु की ‘साँवरी मूरति मोहिनी मूरति' के दर्शन के लिये। श्री रूपकला जी महात्मा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की पंक्तियों को अक्सर गाया करते थे और लोगो को सुनाया भी करते थे:-
बलि साँवरी सुरति मोहनी मूरति, आँखिन को तनि आप दिखाओ।
          रामानंदी सम्प्रदाय की दीक्षा इन्होंने छपरा निवासी श्री स्वामी रामचरणदास जी से प्राप्त की। इन्होंने इनका नाम रखा भगवान् प्रसाद सीताराम शरण। कांता भाव की दीक्षा इनको प्राप्त हुई भागलपुर गुरुहट्टा के महंत श्री हंसकल जी से इनके द्वारा इनका नाम पड़ा श्री रूपकला जी। श्री अयोध्या नगरी में अनुकूल वातावरण एवं सुप्रसिद्ध संतो के बीच अपने को पाकर आप श्रीसीताराम जी के युगल स्वरूप और मंगल मूरति मारुतनन्दन श्रीहनुमान् जी के ध्यान और नाम स्तवन में लीन हो गये। श्री सीताराम जी एवं श्रीहनुमान जी के प्रति अटूट श्रद्धा, भक्ति एवं समर्पण भाव के बल पर उन्होंने अपने आपको अध्यात्म के उच्चतम शिखापर स्थित पाया। यह वही स्थिति है जब भक्ति की पराकाष्ठा प्रभु के प्रति प्रेमरस का परिपाक करके प्रेम की उच्चतम स्थिति जाग्रत करती है।
           एक दीन श्री रूपकला जी विश्राम कर रहे थे और पास में कुछ प्रेमी भक्त भी सोये हुए थे। एका-एक श्री रूपकला जी उठकर बैठ गए और अन्य भक्तों को भी उठ खड़े होकर प्रार्थना करने की आज्ञा दी। कारण पूछने पर श्री रूपकला जी ने कहा- श्री गुरुदेव जी का विमान साकेत धाम जा रहा था, अंतिम विदा लेने आये थे।  प्रातःकाल तार द्वारा अनुसंधान करने पर ज्ञात हुआ की भागलपुर गुरुहट्टा के महंत श्री हंसकला जी का ठीक उसी समय साकेतवास हुआ था।
            ४ जनवरी १९३२ ई को श्रीरूपकला जी की अन्तिम यात्रा संपन्न हुई। यह तिथि थी वि.संवत् १९८९ की पौष शुक्ल द्वादशी। इसका उल्लेख श्री रघुवंशभूषण शरण जी द्वारा रचित “श्रीरूपकलाप्रकाश“ में मिलता है। चार जनवरी के सुबह से ही मालूम नहीं क्यों श्रीरूपकला जी के मुखारविन्द से लगातार केवल ‘राम' ही शब्द गूंजे हुए स्वर से निकल रहा था। एक बजे रात्रि मे ‘राम-राम’ उच्चारण करने के अनन्तर उन्होने कहा- 'प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन'। इतना ही कहकर वे चुप हो गए और कुछ प्रार्थना करने लगे। इस प्रकार रात्रि ३ बजे परम पद प्राप्त किये।
          श्री रूपकला जी को अपने सकेतवास का समय बहुत समय से विदित था। बीस वर्ष पूर्व की एक पुस्तक (डायरी ) में एक जगह लिखा पाया गया है कि- वि.संवत् १९८९ की पौष शुक्ल द्वादशी को श्री मरुतिराय (हनुमान जी) आकर अपने साथ ले जायेंगे- यह श्री वचन है। श्री रूपकला जी चालीस वर्ष के अखंड श्री अवधवास के अनंतर अपनी अमर कीर्ति, उच्च आदर्श और अमूल्य वचनामृत को इस संसार में छोड़कर भगवान् के नित्य धाम श्रीसकेत पधारे। श्रीअयोध्या जी में श्री रूपकला कुंज मन्दिर आज भी रूपकला घाट, श्रीराम की पौड़ी पर स्थित है, जहाँ अनवरत जय सियाराम जै जै हनुमान का संकीर्तन क्रम चलता रहता है। परम पूज्य संतशिरोमणी श्रीरूपकला जी  महाराज को शत शत दण्डवत् प्रणाम।
"जय जय श्री राधे"

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