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रासलीला रहस्य
भाग- 14

एक चौथा भाव विशेष महत्त्व का और है - वह यह कि स्वकीया अपने घर का, अपना और अपने पुत्र-कन्याओं का पालन-पोषण, रक्षणावेक्षण पति से चाहती है। वह समझती है कि इनकी देख-रेख करना पति का कर्तव्य है क्योंकि वे सब उसी के आश्रित हैं और वह पति से ऐसी आशा भी रखती है। कितनी ही पतिपरायण क्यों न हो, स्वकीया में यह ‘सकामभाव’ छिपा रहता ही है परंतु स्वकीया अपने प्रियतम से कुछ नहीं चाहती, कुछ भी आशा नहीं रखती। वह तो केवल अपना सर्वस्व देकर ही उसे सुखी करना चाहती है। श्रीगोपियों में यह भाव भी भलीभाँति प्रस्फुटित था। इसी विशेषता के कारण संस्कृत साहित्य के कई ग्रन्थों में निरन्तर चिन्तर के उदाहरण स्वरूप परकीया भाव का वर्णन आता है।

गोपियों के इस भाव के एक नहीं, अनेकों दृष्टान्त श्रीमद्भागवत में मिलते हैं इसलिये गोपियों पर परकीयापन का आरोप उनके भाव को न समझने के कारण है। जिसके जीवन में साधारण धर्म की एक हलकी सी प्रकाश रेखा आ जाती है, उसी का जीवन परम पवित्र और दूसरों के लिए आदर्श स्वरूप बन जाता है। फिर वे गोपियाँ, जिनका जीवन साधना की चरम सीमा पर पहुँच चुका था अथवा जो नित्यसिद्धा एवं भगवान की स्वरूपभूता है या जिन्होंने कल्पों तक साधना करके श्रीकृष्ण की कृपा से उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है, सदाचार का उल्लंघन कैसे कर सकती हैं? और समस्त धर्म-मर्यादाओं के संस्थापक श्रीकृष्ण पर धर्मोल्लंघन का लान्छन कैसे लगाया जा सकता है?

श्रीकृष्ण और गोपियों के सम्बन्ध में इस प्रकार की कुकल्पनाएँ उनके दिव्य स्वरूप और दिव्य लीला के विषय में अनभिज्ञता ही प्रकट करती हैं।

भगवान श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्माकार-वृत्ति श्रीराधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ हैं। उनका धारा प्रवाह रूप से निरन्तर आत्मरमण ही रास है। किसी भी दृष्टि से देखें, रासलीला की महिमा अधिकाधिक प्रकट होती है परंतु इससे ऐसा नहीं मानना चाहिए कि श्रीमद्भागवत में वर्णित रास या रमण-प्रसंग केवल रूपक या कल्पना मात्र है। वह सर्वथा सत्य है और जैसा वर्णन है, वैसा ही मिलन-विलासादिरूप श्रृंगार का रसास्वादन भी हुआ था।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

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