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चीरहरण रहस्य-भाग 6

भगवान की लीलाओं को मानवीय चरित्र के समकक्ष रखना शास्त्र दृष्टि से एक महान अपराध है और उसके अनुकरण का तो सर्वथा ही निषेध है। मानव बुद्धि जो स्थूलताओं से ही परिवेष्टित है केवल जड़ के सम्बन्ध में ही सोच सकती है, भगवान की दिव्य चिन्मयी लीला के सम्बन्ध में कोई कल्पना ही नहीं कर सकती।वह बुद्धि स्वयं ही अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियों के प्रेरक और बुद्धियों से अत्यन्त परे रहने वाले परमात्मा की दिव्य लीला को अपनी कसौटी पर कसती है।

हृदय और बुद्धि के सर्वथा विपरीत होने पर भी यदि थोड़ी देर के लिये मान लें कि श्रीकृष्ण भगवान नहीं थे या उनकी यह लीला मानवीय थी तो भी तर्क और युक्ति के सामने ऐसी कोई बात नहीं टिक पाती, जो श्रीकृष्ण के चरित्र में लांछन रूप हो। श्रीमद्भागवत का पारायण करने वाले जानते हैं कि व्रज में श्रीकृष्ण ने केवल ग्यारह वर्ष की अवस्था तक ही निवास किया था। यदि रासलीला का समय दसवाँ वर्ष मानें तो नवें वर्ष में ही चीर हरण लीला हुई थी।

इस बात की कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्ष के बालक में कामोत्तेजना हो सकती है। गाँव की गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ वर्तमान काल की नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ वर्ष के बालक से रति भाव करना चाहें और उसके लिये साधना करें, यह कदापि सम्भव नहीं दीखता। उन कुमारी गोपियों के मन में कलुषित वृत्ति थी, यह सोचना वर्तमान कलुषित मनोवृत्ति की विडम्बना है।

आजकल जैसे गाँव की छोटी-छोटी लड़कियाँ ‘राम’-सा वर और ‘लक्ष्मण’-सा देवर पाने के लिये देवी-देवताओं की पूजा करती हैं, वैसे ही उन कुमारियों ने भी परम सुन्दर परम मधुर श्रीकृष्ण पाने के लिये देवी पूजन और व्रत किये थे। इसमें दोष की कौन सी बात है?

दृष्टि भेद से श्रीकृष्ण की लीला भिन्न-भिन्न रूप में दीख पड़ती है। आध्यात्मवादी श्रीकृष्ण को आत्मा के रूप में देखते हैं और गोपियों को वृत्तियों के रूप में । वृत्तियों का आवरण नष्ट हो जाना ही ‘चीरहरण-लीला’ है और उनका आत्मा में रम जाना ही ‘रास’ है। इस दृष्टि से भी समस्त लीलाओं की संगति बैठ जाती है।

भक्तों की दृष्टि से गोलोकाधिपति पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का यह सब नित्य लीला-विलास है और अनादि काल से अनन्त काल तक यह नित्य चलता रहता है। कभी-कभी भक्तों पर कृपा करके वे अपने नित्य धाम और नित्य सखा-सहचरियों के साथ लीलाधम में प्रकट होकर लीला करते हैं और भक्तों के स्मरण-चिन्तन तथा आनन्द-मंगल की सामग्री प्रकट करके पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं।

साधकों पर किस प्रकार कृपा करके भगवान उनके अन्तर्मल को और अनादि काल से संचित संस्कारपट को विशुद्ध कर देते हैं, यह बात भी इस चीरहरण-लीला से प्रकट होती है। भगवान की लीला रहस्यमयी है, उसका तत्त्व केवल भगवान ही जानते हैं और उनकी कृपा से उनकी लीला में प्रविष्ट कुछ भाग्यवान भक्त जानते हैं।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

जय श्री राधे राधे
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