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रासलीला रहस्य
भाग- 12

भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीलानुरूप मान और मद का संचार हुआ और भगवान अन्तर्धान हो गये। जिनके हृदय में लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मानका संस्कार शेष है, वे भगवान के सम्मुख रहने के अधिकारी नहीं अथवा वे भगवान के पास रहने पर भी उनका दर्शन नहीं कर सकते परंतु गोपियाँ गोपियाँ थीं, उनसे जगत् के किसी प्राणी की तिलमात्र भी तुलना नहीं हैं।

भगवान के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, इस बात को रासलीला का प्रत्येक पाठक जानता है। गोपियों के शरीर मन प्राण, वे जो कुछ थीं सब श्रीकृष्ण में एकतान हो गये। उनके प्रेमोन्माद का वह गीत, जो उनके प्राणों का प्रत्यक्ष प्रतीक है, आज भी भावुक भक्तों को भाव मग्न करके भगवान के लीला लोक में पहुँचा देता है। एक बार सरस हृदय से (हृदयहीन होकर नहीं) पाठ करने मात्र से ही वह गोपियों की महत्ता सम्पूर्ण हृदय में भर देता है।

गोपियों के उस ‘महाभाव’ उस ‘अलौकिक प्रेमोन्माद’ के देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तर्हित न रह सके, उनके सामने ‘साक्षात मन्मथमन्मथ’ रूप से प्रकट हुए और उन्होंने मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया कि ‘गोपियों मैं तुम्हारे प्रेमभाव का नित्य ऋणी हूँ। यदि मैं अनन्त काल तक तुम्हारी सेवा करता रहूँ तो भी तुमने उऋण नहीं हो सकता। मेरे अन्तर्धान होने का प्रयोजन तुम्हारे चित्त को दुखाना नहीं था, बल्कि तुम्हारे प्रेम को और भी उज्ज्वल एंव समृद्ध करना था’
इसके बाद रासक्रीड़ा प्रारम्भ हुई।

जिन्होंने अध्यात्म शास्त्र का स्वाध्याय किया है, वे जानते हैं कि योग सिद्धि प्राप्त साधारण योगी भी कायव्यूह के द्वारा एक साथ अनेक शरीरों का निर्माण कर सकते हैं और अनेक स्थानों पर उपस्थित रहकर पृथक्-पृथक् कार्य कर सकते हैं। इन्द्रादि देवगण एक ही समय अनेक स्थानों पर उपस्थित होकर अनेक यज्ञों में एक साथ आहुति स्वीकार कर सकते हैं। निखिल योगियों और योगेश्वरों के ईश्वर सर्वसमर्थ भगवान श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ अनेक गोपियों के साथ क्रीड़ा करें तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है? जो लोग भगवान को भगवान नहीं स्वीकार करते, वे ही अनेकों प्रकार की शंका कुशंकांएँ किया करते हैं। भगवान की निज लीला में इन तर्कों के लिये कोई स्थान नहीं है।
(साभार श्री राधामाधव चिंतन से)

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