प्रेम सम्पुट लीला

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

राधा
।।श्रीकृष्णाय नमः।।
।। श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः।।

श्रीप्रेम-सम्पुट लीला

मंगलाचरण
(श्लोक)
चिन्तामणिः प्रणमतां व्रजनागरीणां चूडामणिः कुलमणिर्वृषभानुनाम्नः।
सा श्यामकामवरशान्तिमणिर्निकुंजभूषामणिर्हृदयसम्पुटसन्मणिर्नः।।
अर्थ- जो आश्रित जनन के ताईं समस्त फल-दाता चिंतामनि हैं, जो ब्रज-नव तरुनीन की चूड़ामनि और वृषभानु की कुलमनि हैं, वे ही श्रीस्यामसुंदर के बिरह कूँ सांत करिबेवारी श्रेष्ठ मनि हैं। निकुंज भवन की भूषन रूपा मनि तथा मेरे हृदय संपुट की हू दिब्य मनि वे ही श्रीराधा हैं।
(श्रीकृष्ण छद्म वेष धारन करि श्रीराधाकाजी के महल की ओर पधारें।)
           
            समाजी-
(श्लोक)
प्रातः कदाचिदुररीकृतचारुरामावेषो हरिः प्रियतमाभवनप्रघाणे।
गत्वारुणांशुकपटेन पिधाय वक्त्रं नीचीनलोचनयुगः सहसावतस्थे।।1।।
श्रीजी-
[आराद्विलोक्य तमथो वृषभानुपुत्री प्रोवाच-] हन्त! ललिते सखि, पश्य केयम्?
स्वस्यांशुभिर्हरिमणीमयतां निनाय मत्सद्म पद्मवदनाद्भुतभूषणाढय्या ।।2।।
(दोहा)
पद्मबदन यह भामिनी भूषन-भूषितत अंग।
अंग प्रभा तें हरिमनीमय कियौ भवन कौ रंग।।
श्रीजी- हे सखी ललिते देखौ, यह कैसौ आश्चर्य है! ये कमलबदन कांता बिचित्र भूषनन सौं भूषित अपनी अंगकांति द्वारा हमारे भवन कौं इंद्र नीलमनिमय प्रकासित करि रही है। देखौ तो, ये कौन है?

               सखी-
(दोहा)
प्यारी-आग्या पाय कैं करूँ प्रस्न मैं जाय।
उर-अंतर कौ भेद लै सीघ्र निबेदूँ आय।।
(संस्कृत)
अहो कृशोदरि त्वं कुत आगता अथ किंवा कृत्यं कार्यम् अस्ति, ब्रूहि।
अर्थ- हे किसोरी! तुम कौन हो, कहाँ ते आई हौ, और यहाँ आयवे को तुम्हारो प्रयोजन कहा है? यदि तुम कूँ बतायबे में संकोच नहीं होय तौ हमारी प्यारीजी कौ कौतूहल निवारन करौ। अरे, कहा कारन है, ये तौ बौलैहू नाँय।
[श्रीजी के पास जाय कैं]
(संस्कृत)
हे किसोरि, मया पृष्टा उत्तरं न ददौ किञ्चित; श्रीमत्या प्रष्टव्यम्।

हे किसोरी, मैंने तौ वासौं पूछी, परंतु वो तौ कछु उत्तर ही नहीं देय है; अब आप ही बुलवाय कैं पूछौ।
श्रीजी- ललिते! तू वाकौं यहाँ बुलाय ला।
सखी- जो आग्या।

[देबी के पास जाय कैं]
‘हे परमकुसले, आप भीतर महलन में पधारौ।’
[श्रीजी देबी कूँ आदर सौं अपने पास बैठारैं]
श्रीजी- हे सुंदरी! तुम कौन हो? तुम्हारी अंग-कांति हमारौ मन-हरन कर रही है। आप देवांगना, अथवा मूर्तिमती सोभा हौ? जैसैं निस्संकोच आप यहाँ पधारी हौ, वैसैं ही अपने सुभागमन कौ कारन भी सीग्र ही कहौ। हमकूँ अपनी परम अंतरंग सखी समझौ यासौं लज्जा और संकोच करनौ जोग्य नहीं है।
सखी- प्यारी! ये तौ दीर्घ स्वास द्वारा प्रत्येक अंग सौं बिषाद प्रगट करि रही है और अपने मुख-कमल कूँ अंचल द्वारा ढाँपि रही है।
क्रमश........

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