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श्रीराधा माधव चिन्तन


श्रीराधाभाव की एक झाँकी
निरंतर..............
                       नहीं नहीं! तब क्या वे चले गये सचमुच ही मुझको छोड़!
मुझे बनाकर अमित अभागिन हाय गये मुझसे मुख मोड़!
सच कहते हो उद्धव! तुम, हो सत्य सुनाते तुम संदेश?
चले गये, हा! चले गये वे, छोड़ गये रोना अवशेष।।
‘पर ऐसा कैसे होता? जो पल पल में मुझे अपलक नेत्रों से देखा करते; जो मुझे सुखमय देखने के लिये बड़े सुख से मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, हानि-लाभ, सुख-दु:ख- सब सहते; मेरा दु:ख जिनके लिये घोर दु;ख और मेरा सुख जिनका आत्यान्तिक सुख था, वे मुझे दु:ख देकर कैसे अपने जीवन-सुख को खो देते? अतएव वे गये नहीं। यहीं छिपे होंगे!’

प्रतिपल जो अपलक नयनों से मुझे देखते ही रहते,
सुखमय मुझे देखने को जो सभी द्वन्द्व सुख से सहते।
मुरा दुःख दुःख अति उनका, मेरा सुख ही अतिशय सुख।
वे कैसे मुझको दुःख देकर खो देते निज जीवन-सुख।।
इतना कहते-कहते ही राधा का भाव बदला। उनके मुख पर हँसी छा गयी और उल्लासित होकर वे कहने लगीं - ‘हाँ ठीक, वे चले गये। मुझे परम सुख देने के लिये ही वे मथुरा में जाकर बसे हैं। मैं इसका रहस्य समझ गयी। मैं सुखी हो गयी मुझे सुख देने वाले प्रियतम के इस कार्य को देखकर! मुझे वे सब पुरानी बातें याद आ गयीं, जो मुझमें-उनमें हुआ करती थीं। उनके जाने का कारण मैं जान गयी। वे मुझे सुखी बनाने के लिये ही गये हैं। इसी से देखो, मैं कैसी प्रफुल्लित हो रही हूँ - मेरा अंग-अंग आनन्द से किस प्रकार रोमान्चित हो रहा है।’
मुझे परम सुख देने को ही गये मुधपुरी में बस श्याम।
समझ गयी, मैं सुखी हो गयी, निरख सुखद प्रियतम का काम।।
याद आ गयी मुझको सारी मेरी-उनकी बीती बात।
जान गयी कारण, इससे हो रही, प्रफुल्लित, पुलकित-गात।।
“बताऊँ, क्या बात है? मुझमें न तो कोई सद्गुण था, न कोई रूप-माधुरी ही। मैं दोषों की खान थी। पर मोह विवश होने के कारण मनमोहन श्यामसुन्दर को मुझमें सौन्दर्य दिखलायी देता और वे मुझे अपना सर्वस्व - तन-मन-धन देकर मुझ पर न्योछावर हुए रहते! वे बुद्धिमान् होकर मोहवश मुझे ‘मेरी प्राणेश्वरी’, ‘मेरी हृदयेश्वरी’ कहते-कहते कभी थकते ही नहीं। मुझे इससे बड़ी लज्जा आती, बड़ा संकोच होता। मैं बार-बार उन्हें समझाया करती - ‘प्रियतम! तुम इस भ्रम को छोड़ दो।’ पर मेरी बात मानना तो दूर रहा, वे तुरंत मुझे हृदय से लगा लेते, मेरे कण्ठहार बन जाते, मैं उन्हें अपने गले से लिपटा हुआ पाती!   
         मैं गुण से, सौन्दर्य से रहित थी; प्रेमधन से दरिद्र थी, कला-चतुरता से हीन थी; मूर्खा, बहुत बोलने वाली, झूठे ही मान-मद से मतवाली, मन्दमति तथा मलिन स्वभाव की थी।

मुझसे बहुत-बहुत अधिक सुन्दरी, सद्गुण-शीलवती, सुन्दर रूप की भंडार अनेकों सुयोग्य सखियाँ थीं, जो प्रियतम को अत्यन्त सुख देने में समर्थ थीं। मैं उनसे नाम बता-बताकर प्रियतम को उनसे स्नेह करने के लिये कहती; परंतु वे कभी भूलकर भी उनकी ओर नहीं ताकते और सबसे अधिक- अधिक क्यों, वे प्रियतम सारा ही प्यार सब ओर से, सब प्रकार से, अनन्य रूप से केवल मुझको ही देते।

इस प्रकार प्रियतम का बढ़ा हुआ व्यामोह देखकर मुझे बड़ा संताप होता और मैं देवता से मनाया करती कि ‘हे प्रभो! आप उनके इस मोह को शीघ्र हर लें।’ मेरा बड़ा सौभाग्य है कि देवता ने मेरी करुण पुकार सुन ली। मेरे प्राणनाथ मोहन का मोह आखिर मिट गया और अब वे मथुरा में अपार आनन्द प्राप्त कर रहे होंगे।

मेरे प्राणाराम वे किसी नगर निवासिनी चतुर सुन्दरी को प्राप्त करके अनुपम सुख भोग रहे होंगे।
मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। आज मैं परम सुखवती हो गयी। आज मेरे भाग्य खुल गये, जो मुझको आनन्द-मंगलमय, जीवन को सजाने वाला, सुख की खानरूप श्यामसुन्दर का यह संदेश सुनने को मिला।’
क्रमश..........

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