आदेश

1 हमारा लक्ष्य युगल के सुख की सेवा है । उनका सुख है । पथिक कोई हो बाहर ,भीतर वह पियप्यारी की सेवा से उन्हें सुख दे ।

2 सेवा एक प्रधान होती है परंतु लीला रूप बहुत सेवायें और होती है ।जैसे पंखा झलने वाली ही गौसाई सेविका ही उनकी शीतलता को द्रवित करने हेतु अंगीठी सेवा करती है । लाडिली लाल के सँग सेवा सघन होती है ।

3 हमारा आदर्श है कि साधक मनमाने ढंग से लीला चिन्तन छोड , रसिक रीति से लीला चिन्तन करें । अर्थात वाणीजू के सँग । अपने सहित ऐसे कई साधकों की मनोकल्पीत लीला भजन और वाणी से छुटती पाई है ।
किसी साधक को लीला अनुभव पूर्व में ही होता हो तो उन्हें उसे छोड़ते बनता नही । रसिक रीति का स्वाद उज्ज्वल है । साधक का निज स्वाद उज्ज्वल नही होता ,जैसे कामकेलि शब्द को साधक प्राकृत काम की तरह चिन्तन करेगा जबकि रसिक रीति से भीतर सर्वतोभावेन श्री युगल के नयन ही ना तृप्त हुये है ,निहारन ही ना पूरी भई है । सम्पुर्ण कामना नयनसुख में भर गई है ।

4 भावसाधक का स्वरूप और स्वभाव   वही है जो उसकी सेवा है । किशोरी जू अपने जिस भाव को सम्भाल नहीं पाती वही उन्हें झरते है मंजरीवत। किशोरी जू ललन सुख से शेष कुछ भी स्वयं धारण नही करती है । जैसे निज रूप ,निज नेह ,निज लालसा आदि । सभी को दासी को स्म्भालना है । जैसे यहाँ भगवती अनन्त शक्तियों से जीव को अनन्त शक्तियों का सामर्थ्य देती है । देविसूक्त (नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:) में सब शक्ति वह है हमारे हेतु ,निद्रा भुक्ति ,मुक्ति ,शान्ति आदि । वैसे ही वहां उन दोनों के सुख हेतु सर्व शक्तियाँ ही मंजरी है ।
निद्रा सुख वही दे सकता है जो अपने जगने को राजी हो । माँ होते हुये जीव ने यह सब किया है , भाव में उनके सुख हेतु सब खेल है । सभी में कोई ना कोई विशेषता है स्वभाव गत ,वही उनकी सेवा है । हमारा स्वभाव वही है जो हमारी सेवा है । सेवा वही है जो श्रीजी से स्वयं ना सम्भलती हो ।

5 हमारा स्वरूप किशोरी जू के करुण नयनों की करुणा है वहाँ । किशोरी जू को और सभी सेवामयी सखियो को हमें निहारना है । हमें अपने स्वरूप दर्शन की पृथकता नही चाहिये । सखी श्री प्रिया की चित्त वृत्ति है । अनन्त छबियां उनकी अपनी इन वृतियो (भावना) में झरती है । जिस भावना के हेतु हम झरे है और श्री किशोरी जू का जो स्वरूप हृदय में हमें प्रकट स्थायी रहे वह उनकी वही छबि जो झरी है । किशोरी जू स्वयं तो नित्य नव्या है । यह सब मैं उज्ज्वल श्रीप्रिया जू और श्री धाम उत्सव में कह चुका हूँ विस्तार से ।

6 बाहर का भीतर कुछ नहीं जाता है जो है वृंदावनेश्वरी का है ।  हम उनकी जितनी प्रगाढ्ता से सेवा करेंगे उतना ही स्वरूप स्वभाव प्रकट रहेगा । परंतु तब अपने स्वरूप स्वभाव को समझने की अपेक्षा किशोरी जू के सुख की चिंता रहेगी ।

7 भजन बिना स्वरूप स्वभाव प्रकट नहीं होता । भजन प्राणों से होता है ।

8 कुछ भावुकों को भाव सुनते समय लीलानुभुति या कोमलता शीतलता आदि अनुभव भी हो तो , रस रीति पर श्रद्धा और विश्वास बिना बात बनेगी नहीं ।

9 पक्की तृषा से भाव वाणी का खेल हिय में स्फुरित हो सकता है ।
मुझपर विश्वास का सबसे बडा बाधक मै ही हूँ । सो बहुत कम ऐसा होगा ।
फूल में कोमलता सब छूते है ,काँटे मे उसका अनुभव कठिन है ।

10 जिन भावुक को हमें श्री जी कृपा से भावना होती कि वह भागे नही उन्हें ही हम स्थिर चाहते । कुछ भागते भी है ,थक कर लौटते भी है तो वहांँ एक नया विकार होता है उनमें । सब द्वारन छोड कर आयो तेरे द्वार । जिस एक द्वार पर विश्वास हो वह सब द्वार पर गया ही क्यों ???

11 कुछ उल्टी रीति चलते है , कहते कि कुछ लीला अनुभव हो तो हम विश्वास करेगे । वह भी होता है । पर पक्का विश्वास अभी केवल तीन चार देहधारियों और अनन्त विदेहधारी भावनाओं को है । यह तीन चार भी अपने भीतर का रस लें रहे , अर्थात जैसे संस्कृत के विद्यालय में अपनी अपनी भाषा पढ्ना । धीरे धीरे रस भाव साम्यता होती है ।

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