एकादशी व्रत

।।श्रीहरिः।।
एकादशी व्रत निर्णय
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       एकादशी व्रत वैसे तो मानव मात्र के लिए है, किन्तु वैष्णवों का यह सबसे महत्वपूर्ण है, सबसे प्रधान है , अनिवार्य है। कई बार अनेक श्रद्धालुओं नें जिज्ञासा व्यक्त की है, अतः  एकादशी व्रत के विषय में जगद्गुरु श्री रामानन्दाचार्यजी द्वारा प्रणीत  "श्रीवैष्णवमताब्जभाष्कर" के माध्यम से निर्णय प्रस्तुत है:---
*श्री हरि को प्रिय एकादशी आदि व्रतों को बेध रहित तिथियों में ही करना चाहिए।
*
*यदि वह एकादशी अरुणोदय काल में दशमी से युक्त हो तो उसे छोंड़कर बाद वाली द्वादशी में व्रतोपवस करना चाहिए--
विद्धादशम्या यदि सारुणोदये स द्वादशीं तूपवसेत्विहाय ताम्।।
*एकादशी दो प्रकार की होती है--
*१ शुद्धा एकादशी--जो एकादशी सूर्योदयकाल से पूर्व न्यूनतम ४ घटी हो वह शुद्धा कहलाती है।
*२ दशमी विद्धा (युक्ता) एकादशी। सुद्धा से अन्य एकादशी विद्धा कहलाती है।
*बेध भी दो प्रकार का होता है--
• १ अरुणोदय काल में दशमी का प्रवेश होने से एक बेध।
• २ सूर्योदय काल में दशमी का प्रवेश होने पर दूसरा बेध।
वेधोपि बोध्यो द्विविधोरुणोदये सूर्योदये वा दशमी प्रवेषतः।
#उषाकाल ---५५ घटी परिमाण के बाद आने वाले काल को उषाकाल कहा जाता है।
#अरुणोदयकाल--५६ घटी के बाद वाले काल को अरुणोदय काल कहते हैं।
#प्रातःकाल--५७ घटी परिमाण वाले काल को प्रातःकाल कहते हैं।
#सूर्योदयकाल--५७ घटी से आगे अर्थात् ५८ घटी के बाद वाला काल सूर्योदयकाल कहा जाता है।
इस प्रकार सूर्योदय से पूर्व का चार घटी वाला काल ही अरुणोदयकाल है।

बेध के चार विभाग होते हैं--
१-अरुणोदय बेध--अरुणोदय काल में साढे तीन घटी जो काल होता है , उसमें दशमी के संयोग को बेध या अरुणोदय बेध कहा जाता है।
२--अतिबेध--सूर्यनारायण के दर्शन के पूर्व दो घटी में जो बेध (दशमी का प्रवेश) होता है , विद्वान् उसे अतिबेध कहते हैं।
३--महाबेध--सूर्यप्रभा दर्शन से अर्ध सूर्योदय तक का जो काल होता है, उसमें बेध ( दशमी प्रवेश) होने पर महाबेध कहलाता है।
४--तुरीयबेध--सूर्यनारायण के उदय होने पर जो दशमी का बेध होता है, वह तुरीयबेध कहा जाता है।
इन चार प्रकार के बेधो में उत्तरोत्तर वाले बेध अधिक दोष वाले होते हैं।
२८ घटी की रात्रि होने पर अरुणोदय काल में साढ़े तीन (३_१/२) घटी का बेध माना जाता है।  २८ घटी से अधिक की रात्रि होने पर अरुणोदयकाल में ४ घटी का बेध माना जाता है। ( हेमाद्रि वचन)

शुद्धा एकादशी भी तीन प्रकार की होती है--
१--द्वादशी की अधिकता वाली एकादशी।
२-- द्वादशी समान  होने वाली एकादशी द्वितीय है।
३--जब एकादशी की अधिकता, तथा द्वादशी की न्यूनता हो, ऐसी एकादशी तृतीय है।
*इन तीनों में से प्रथम ( द्वादशी की अधिकता तथा एकादशी न्यून होने वाली) एकादशी ही श्रेष्ठ है।
*प्रथम एकादशी तथा अन्य का विकल्प न होने पर द्वितीय और तृतीय एकादशी भी भक्तों द्वारा ग्राह्य है।
*यदि द्वादशी  दो दिन हो तो शुद्धा एकादशी भी त्याज्य है।
*यदि द्वादशी दो हो तो शुद्ध द्वादशी में ही उपवास करके द्वादशी में पारण करना चाहिए।
* यदि कभी एकादशी और द्वादशी  इन दोनों तिथियों की अधिकता हो तो पर एकादशी में उपवास करना चाहिए।

#पारण के लिए त्याज्य द्वादशी
     यदि अनुराधा के प्रथम चरण से युक्त आषाढ़, श्रवण नक्षत्र के द्वितीय चरण से युक्त भाद्रपद तथा  रेवती नक्षत्र के तृतीय चरण से युक्त  कार्तिकमास के शुक्लपक्ष की द्वादशी हो तो उसमें पारण नहीं करना चाहिए। ऐसी द्वादशी व्रत के पुण्य का हरण करने वाली होती है।
#विशेष विवरण:-- रात्रि के तीन प्रहर के बाद चौथे प्रहर में उठकर स्नान आदि नित्यक्रिया  की जाती है। इसके पूर्व स्नान का निषेध है--
#महानिशा तु विज्ञेया रात्रौ  मध्ययामयो:।
#तस्या स्नानं न कुर्वीत ( वीर मित्रोदय --विश्वामित्र वचन)।।
*व्रत की अवधि एक अहोरात्र ( २४ घण्टे) होती है।
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• जो लोग ४५ घटी के बाद वेध मानते हैं , उन्हें २४ घण्टे का व्रत करने के लिए  उनको अभीष्ट  शुद्ध  एकादशी में मध्यरात्रि में ही व्रत का संकल्प लेना होगा। सङ्कल्प के अनन्तर व्रत आरम्भ हो जायेगा ।  मध्यरात्रि में स्नान शास्त्र विरुद्ध है ।इस लिए ४५ घटी के बाद अर्थात् सूर्योदय से १५ घटी पहले वेध मानने वाला पक्ष शास्त्रसम्मत नहीं है।
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•      अरुणोदय वेध मानने वालों के अनुसार
अरुणोदयकाल में शुद्धा एकादशी होती है। उस काल में स्नान करके उसका संकल्प आदि करते है। इस मत में व्रत का निर्वाह सम्यक् रूप से हो जाता है।
      इस प्रकार ४५ घटी के बाद का वेध मानना उचित नहीं है ।
           जय जय श्रीराधे

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