गोप देवी लीला

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीगोपदेवी-लीला
निरंतर.......
विषयन के सुख-उदय के कारन भजन-कीर्तन में मन न लगनौं यासौं रसास्वाद कहैं हैं।
भजन-कीर्तन में क्रोध-लोभ हौनौ, यासौं कषाय कहैं है।

ये पाँच बिघ्न हैं। जो कोई इन कूँ जीति लेय है, वाकी निष्ठा दृढ़ होय है। फिर रुचि उत्पन्न होय है। वही रुचि परम प्रौढ़ है कैं प्यारे में लगै है। सोइ रुचि आसक्ति कहावै है। आसक्ति जैसे-जैसैं अंतःकरणरूपी दर्पण कौ मार्जन करै है, तैंसैं ही तैसैं प्यारे कौ रूप नैनन के आगे झलकिबे लगै है। हे देबी, पहलैं भाव उदय होय है, फिर प्रेम उदय होय है और प्रेम के पीछें दसा होय है सोहू सुनौ। यही प्रेम रूपी भक्ति-रस गौण और मुख्य भेद सौं बारह प्रकार कौ है। परंतु मुख्य भेद पाँच ही हैं- शांत, दास्य, सख्य, वातसल्य और मधुर रस। मधुर रस की पुष्टि संयोग और वियोग- इन दोनूँन सूँ होय है। प्यारे के बिरह में एक पल मात्र जुग समान बीतै है और नैनन सौं आँसुन की धार बह्यौ करै है। सब जगत् सून्यवत् दिखाई देय है।

(श्लोक)
क्लिश्यमानाञ्जनान दृष्टवा कृपायुक्तो यदा भवेत्।
तदा सर्वे सदानन्दं हृदस्थिं निर्गतं बहिः ।।
अर्थ- भक्त प्यारे कौ गुनगान करत-करत जब अधिक क्लिश्यमान है जायँ हैं, तब हृदय में विराजमान जो सदानन्द-स्वरूप है, सो बाहर प्रकट होय कृपा करि दरसन देय है। और जहाँ हमारे प्यारे कौ गुनगान होय है, तहाँ प्यारे अवस्य पधारैं हैं- उनकी सत्य प्रतिग्या है।
      देवी- किसोरी जू, आप तौ यहाँ बैठी हौ और आप के प्यारे नंदगाँव होंय अथवा बन में गैया चराय रहे होंय। आप यहाँ सूं उन कौ स्मरण करौ और वे यहाँ आय जायँ, तब आप की बात कूँ सत्य मानूँगी।
श्रीजी- अच्छौ, सखी! आऔ। हम सब मिलि कैं कीर्तन करैं।
(पद)
आऔ पिया, तुम नंद दुलारे!
तिहारे दरस बिनु ब्याकुल मन भयौ, जीवन प्रान हमारे।।
वह आवनि, वह हँसनि माधुरी, नैन कमल रतनारे।
सूरदास प्रभु बेगि मिलौ अब मो अखियन के तारे।।
श्रीजी- सखी, वह देबी कहाँ है? वाकौं अबहूँ विस्वास भयौ कि नाहीं।
(ठाकुरजी छद्म-भेस त्याग करि कैं श्रीजी के पास पधारैं)
श्रीकृष्ण-
(दोहा)
अहो प्रानप्रिय राधिके! जो दुख बीत्यौ तोहि।
बीत्यौ, ताहि बिसारि कैं, हृदय लगावहु मोहि।।
अब कवहूँ जनि भूलि कैं मन मति करौं कुरंग।
पलक न अंतर परैगो, सदा रहौं तुव संग।।
श्रीजी- सखी, वह देबी कहाँ है? वाकौं अबहूँ बिस्वास भयौ कि नाहीं?
सखी- प्यारी जू, वा देबी में ते तौ ये देवा प्रगट है गये।
श्रीजी- क्यों पधारे?
ठाकुरजी- हाँ, किसोरी जू! आप के दरसनन के ताईं रातदिन जुक्ति सोच्यौ करूँ हूँ।
इति श्री गोपदेबी लीला संपूर्ण

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