गौर राधाभाव

प्रभु उसी भाव में ऊँचे हाथ उठाकर उच्च स्वर में नीचे का श्लोक पड़ने लगे:
" य कौमारहरा" स एव वरस्ता ऐव चेत्रशपा"
सते चोनमीलितमालतीसुरभय प्रौड़ा क़दमबनीला"

इस श्लोक को श्रीमहाप्रभु बार बार पड़ने लगे। श्रीस्वरूपदामोदर के बिना इस श्लोक का अर्थ या भाव कोई भी नहीं जानता था। इस श्लोक का अर्थ कुछ इस प्रकार से है:.
" पहले ब्रजलीला में जब कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण के साथ ब्रजगोपियों का मिलन हुआ तब वे श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर अतीव हर्षित हुई थी। श्रीजगन्नाथजी का दर्शन करके श्रीमहाप्रभुजी में भी वही भाव उदय हो आया है उसी भाव से आविष्ट होकर प्रभु ने उस गीत का गान कराया।
            🌹🌹भावार्थ उसी गीत का 🌺🌺

श्रीराधारानी अपनी सखी से कहती है " जिसने मेरी कुमार अवस्था का हरण किया है वहीं मेरा वर ( श्रीकृष्ण) अर्थात उसी ने विवाह करके मुझे अपनी पत्नीरूप में अंगीकार किया है उसके साथ जब मै प्रथम बार मिली थी तब भी चैत्रमास की रात थी और वही चैत्रमास की रात्रि अब भी है प्रथम मिलन के भाँति प्रफुल्लित मालती सुगंधी युक्त वायु ( अब भी) क़दमब
वन के ओर से मंद मंद प्रवाहित हो रही है

" उस मिलन के अंत में श्रीराधाजी ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की थी की " आप भी वही हो और मैं भी वही हूँ तथा बहुत काल का पश्चात् हम दोनो का यह मिलन भी एक प्रकार का " नव मिलन" ही है किंतु मेरे(श्रीराधा)  मन को तो श्रीवृंदावन की ही स्मृति हरण कर रही है अतः आप श्रीवृंदावन में ही पधारो ( क्यूँकि जो आनंद मैंने श्रीवृंदावन में अनुभव किया था यहाँ ( कुरुक्षेत्र) वह आनंद अनुभव नहीं हो रहा) उसका कारण यह है के यहाँ तो लोगों का बग़ीचा जमघट बन रहा है और हाथी घोड़े रथ का कोलाहल मच रहा है। किंतु श्रीवृंदावन में तो पुष्पों के बग़ीचे है और मधुकरो और कोयलों की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। यहाँ आपका राजवेष है और साथ में आपके शत्रिया योद्धा लोग है जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सजधज रहे है।
वहाँ आपका गोपवेश था और सुंदर मुरली आपके मुख कमल पर शोभित थी। वहाँ आपके साथ भोले-भाले समान वेश के सखागण थे। श्रीवृंदावन में तुम्हारे साथ मिलकर जिस सुख का अस्वादन मिला था उस सुखसमुद्र का एक कण भी मुझे यहाँ प्राप्त नहीं हो रहा है। श्रीवृंदावन में ही मुझे ले चलकर आप लीला करिए तभी मेरी मनोवांछा पूर्ण हो सकती है।

श्रीराधाजी की इस उक्ति का प्रमाण श्रीमदभागवत में मिलता है श्रीराधाजी के उसी भावावेश में प्रभु इस श्लोक का पाठ कर रहे थे। इस श्लोक का अर्थ और कोई नहीं जानता था। श्रीस्वरूप गोस्वामी जानते थे किंतु वे उसे प्रकाशित नहीं करते थे। श्रीरूप गोस्वामी ने उस अर्थ का प्रचार किया। श्रीस्वरूप गोस्वामी के साथ जिस अर्थ भाव का अस्वादन प्रभु किया करते थे नृत्य में भी उसी श्लोक का पाठ करने लगे।
कुरुक्षेत्र मिलन में श्रीराधिका - प्रमुख गोपियों ने कहा -

" श्रीराधाजी ने कहा - " हे कमलनयन! अन्य लोगों का हृदय ही मन होता है अर्थात उनका मन और हृदय एक
होते है किंतु मेरा मन और हृदय एक नहीं है। मेरा मन श्रीवृंदावन है। मेरा मन और श्रीवृंदावन एक है इनमें कुछ भी भेद नहीं है। आप यदि श्रीवृंदावन में अपने चरणकमल उदय करावे अर्थात वहाँ पधारे तभी मैं अपने ऊपर आपकी पूर्ण कृपा मानूँगी

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