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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला
निरंतर................
(मूछत अवस्था-सखी संभारै)
सखी- प्यारी, चैत करौ ।
श्रीजी- बहिन बिसाखा! मेरे समीप सौं दूर हटि जा, मेरे अंग सौं स्पर्स मत करै, मेरौ अंग स्पर्श करिबे सौं तू हू मलिन है जायगी। तू मोसौं नित कहती कि राधा हम सब पै बहुत प्यार करै है, तौ आज मैं अपने प्यार कौ प्रत्युपकार यही चाहूँ कि तुम कोई बाधा मति दीजौं। अब सीघ्र-सौं-सीघ्र मेरे या मलिन सरीर कौ अंत है जाय, यामें सहायक बनियौं।
सखी- प्यारी! आप के मुख ते यह बात सुनि कैं हमारे हृदय में कितनी पीरा होय है, आप या बात कौ नैंकहू ध्यान नायँ करौ; नहीं तौ ऐसी बात न कहतीं। आप कूँ यह बात सोभा नायँ दै।
श्रीजी- बहिना, तू नायँ जानै कि ये बात मैंने क्यों कही। अच्छौ, मृत्यु ते पहिलैं इन कूँ प्रकट करि दैनौ ही उचित है।
(श्लोक)
एकस्य श्रुतमेव लुम्पति मतिं कृष्णेति नामाक्षरं
सान्द्रोन्मादपरम्परामुपनयत्यन्यस्य वंशीकलः।
एष स्निग्धघनद्युतिर्मनसि मे लग्नः पटै वीक्षणात्
कष्टं धिक् पुरुषत्रये रतिरभून्मन्ये मृतिं श्रेयसीम् ।।
‘वा दिनां मैंने तुम्हारे मुख ते कृष्न-नाम सुन्यौ, सुनतहीं मेरौ बिबेक जातौ रह्यौ। मैंने यह नहीं सोच्यौ कि यह कृष्न कौन है; तुरंत मन ही मन, अपनौ मन, प्राण, जीवन, सरबस्व उन कूँ समर्पन करि बैठी। कृष्न-नाम कौ मधुपान करि बावरी है गई। सोच्यौ कि वे मिलैं, चाहें न मिलैं, कृष्न-नाम के सहारें जीवन समाप्त करि दऊँगी। किंतु वाही दिनाँ तुम नें चित्र दिखायौ। चित्र छबि, बस एक ही बार देख सकी। देखत ही वह स्याम-वरन मेघद्युति पुरुष मेरे प्रानन में समाय गयौ। फिर इतने ही में बंसी बजी, बंसी की धुनि सुनि

मेरौ ममन विक्षिप्त है गयौ।

वाते दो ही पहर पहिलें श्रीकृष्ण कूँ आत्मसर्पन करि चुकी ही, फिर वा चित्र पै आसक्ति भई, और थोरी देर में सब भलि वा बंसी के नाद प्रवाह में बह गयी, उन्मादिनी है गई, सब सुधि-बुधि भूलि गई। ओह! धिक्कार है मो जैसी कूँ कि जानें तीन पुरुषन कूँ आत्मसमर्पन कियौ, तीन पुरुषन कूँ प्यार कियौ। उन तीनोंन के प्रति हृदय में रति उत्पन्न भई। ऐसे जीवन सौं तौ मृत्यु ही श्रेष्ठ है। ऐसे सरीर कूँ अब नहीं राखूँगी, याकूँ तौ अब जमुना के ही भेट करूँगी।’

(भागि कैं यमुना की ओर जानौ; सखी-अंक में भरि लेय)

सखि- प्यारी! हमें कौन के सहारें छोड़ि रही हौ? और आप कहि रही हौ कि मैंने तीन पुरुषन सौं प्यार कियौ, सो वे तौ तीन्यौ एक ही हैं- नाम कृष्न कौ, चित्र हूँ कृष्न कौ और बंसी हूँ कृष्ण की! आप नैंक धीरज धरौ।

श्रीजी- बहिन! तू क्यौं रोवै है, यामें तेरौ कछू दोस नायँ। तैंने तौ श्रीकृष्ण सौं मिलायबे के अनेक प्रयत्न किए, किंतु तू मेरे मंदभाग्य कूँ कैसैं पलटि सकै है।

(कंकन उतारि कै सखी कूँ दैनौं)

लै, बहिन बिसाखे! ये मेरौ स्मृति-चिह्न मेरी प्यारी सखी ललिता कूँ दै दीजौं। किंतु तोय दैबे जोग्य मेरे पास कोई वस्तु नहीं। लै, ये मेरी सदाँ के ताईं अंतिम बिदा की तुच्छ भेट! तू याकूँ अस्वीकार मत करियौं। या मुद्रिका कूँ देखि कैं कबहुँ मेरी याद करि लेऔ करियौं। बस, अब विशेष समय नहीं है, हृदय कूँ पत्थर करि लै। अब अपनी अंतिम बासना और सुनाय रही हूँ, वाकूँ धैर्य धरि कैं सुनि लै।
क्रमश...............

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