हरि हरि विफल

हरि हरि! विफले
हरि हरि! विफले जनम गोंआइनु।
मनुष्य जनम पाइया राधाकृष्ण ना भजिया,
जानिया शुनिया विष खाइनु।।1।।
गोलोकेर प्रेम धन, हरिनाम-संकीर्तन
रति ना जन्मिल केने ताय।
संसार-विषानले, दिवानिशि हियाजले,
जुड़ाइते ना कोइनु उपाय।।2।।
ब्रजेन्द्रनन्दन जेइ; शचीसुत हैल सेइ,
बलराम हइल निताइ।
दीन हीन यतछिल, हरिनामे उद्धारिल,
तार साक्षी जगाइ माधाइ।।3।।
हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानुसुतयुत,
करुणा करह एइ बार।
नरोत्तमदास कए ना ठेलिह रांगा पाय,
तोमार बिने के आछे आमार।।4।।
1. हे श्रीहरि! मैंने अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा दिया है। मानव जीवन पाकर भी मैंने श्री श्रीराधा-कृष्ण का भजन नहीं किया और जानबूझकर विष खा लिया।
2. गोलोक का प्रेमधन भगवान् हरि के नाम-सकीर्तन के रूप में अवतरित हुआ है। किन्तु उस के प्रति मेरा कोई अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ है। मेरा हृदय दिन-रात संसार के विषयों की अग्नि में दहक रहा है और दुर्भाग्य से मैंने इससे मुक्त होने का कोई उपाय भी नहीं ढूँढ़ा है।
3. इस कलियुग में व्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण शचीमाता के पुत्र के रूप में अवतरित हुए हैं और बलरामजी श्रीनित्यानन्द प्रभु के रूप में। हरिनाम ने सभी पतित जीवों का उद्धार कर दिया है और जगाइ-मधाइ नामक दो पापी इसके प्रमाण हैं।
4. हे नन्दपुत्र श्रीकृष्ण! हे वृषभानुनन्दिनी श्रीराधारानी! कृपया इस बार मुझपर करुणा कीजिए! नरोत्तमदास कहते हैं, ‘‘हे प्रभु! कृपया मुझे अपने लालिमायुक्त चरणकमलों से दूर न हटाना, क्योंकि आपके बिना मेरा है ही कौन?’’

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