हम हमारे
मेरी स्वामिनी श्रीराधिके
यह शीर्षक आप ही रखे न ।
जीव का ममत्व शुद्ध नही होता । वह जब विशुद्धता से सँग करता है तो वह मेरापन विशुद्ध होने लगता है ।
अगर सच में *वह* मेरे लगते हो तो यह ममत्व केवल आभास भर रह जाता है ।
बहुत पद है ...मोरि ...मेरी आदि कर के ।
जैसे ... मेरी स्वामिनी श्रीराधारानी ।
यहाँ विशेष बात यह है कि मेरी और हमारी कहाँ हो ???
हमारी वहाँ जहाँ सामुहिक एकता हो । मेरी वहांँ जहाँ अनन्य निजता हो ।
हमारी किशोरी ऐसा कहने में आयेगा तो उत्तम है पर लिखा जावें तो मेरी असर अधिक करेगा क्योंकि प्रत्येक पाठक को ममत्व होगा वहाँ ।
ममता-ममत्व हमारे विशुद्ध हो सो उन्हें विशुद्धता सँग जोडा जाता है । वरण उनके गलित हुये बिना बात बनती नही । जैसे ही वह अप्राकृत दिव्य स्वरूप स्वभाव या श्रीहरि अथवा उनकी प्रेम-करुणा का सँग पाता है भक्ति पथ में कुछ भी मेरा हो जाता है तो परिणाम में वह मेरापन गल जाना चाहिये । वह मेरापन अगर नवनीत (माखन) की तरह कोमल ना होता जावें उसमें अहंकार रूपी दधि बढे तो रससार की स्थिति का अभाव बना रहता है । वह ममत्व केवल सर्व को ममत्व का आभास देने को प्रकट होता है वरण वहाँ मम कहने हेतू पृथक् कुछ नही होता । एक झरा हुआ फूल किस उल्लास से कहेगा ...मेरी शाखा
कहने का तात्पर्य प्रथम तो ममत्व स्थापित हो । फिर वह गल जावें कि वह ममत्व जहाँ हुआ वहांँ निज जीवन अनुभव हो । जिसे अब अपना कहकर छोटा करने की हिम्मत ना रह्वे ।
भक्ति में श्रीहरि का गुणगान नित्य है । सो श्री प्राणधन का स्वरूप- स्वभाव सघन होता रह्वे । और अपना स्वरूप-स्वभाव गलित होता ही जावें । हम सिकुड्ते जावें वह अपने प्रेम सँग फैलते जावें । तृषित ।
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