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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीगोपदेवी-लीला
निरंतर........
श्रीकृष्ण- हे सुंदरी, तेरी वार्ता गूढ रस सौं भरी है। तू देखिबे में चतुर, पै वास्तव में भोरी है। देख, त्रिलोकी में प्रेम जैसौ पदार्थ और नहीं है। मोकूँ बस करिबे की सक्ति केवल एक प्रेम में ही है। मेरौ भक्त त्रिलोकी कौ राज्य माँगै और सुरेंद्र, महेस्वर, ब्रह्मा आदि पदवी की इच्छा करै तौ मैं वाकूँ अति प्रसन्न है कैं सब बस्तु दै देऊं, परंतु प्रेम-रत्न दैवे में कदापि उत्साह नहीं करूँ हूँ; क्योंकि मोकूँ प्रेमी जनन कौ दास बननौ परै है। उनके पीछे-पीछे लग्यौ डोलनौ परै है। प्रेमी जन समान मोकूँ कोई बस्तु प्यारी नहीं है।

(श्लोक)
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङघ्रिरेणुभिः ।।
सखी- हे प्यारे, यदि आपकौ यही प्रन है तो आप या ब्रजललना के पास। अवस्य ही पधारौगे। (पटापेक्ष)
सखी- (श्रीजी के पास आय कूँ) हे प्यारी जी! आप धीरज धरौ, स्यामसुंदर अबही आवैं हैं। वे हू आपकौ स्मरन करि रहै हैं।

  

श्रीजी- गतो यामो गतौ यामौ गता यामा गतं दिनम् ।
हा हन्त किं करिष्यामि न पश्यामि हरेर्मुखम्।।
(दोहा)
एक पहर बीत्यौ कठिन, दोउ पहर गए बीत ।
केते जाम निकसि गए, दिन हू भयौ ब्यतीत।।
अजहूँ श्रीब्रजचंद्र-मुख-दरसन पायौ नाहिं।
हाय! हाय! कैसैं करूँ, अति संकट मन माहिं।।
चैन गयौ, निद्रा नसी, जियरा तरसत हाय।
मिलिबे कूँ प्राणेस के, करियै कौन उपाय।

   (कुंडलिया)
इन दुखिया अँखियान कौं सुख सिरज्यौ ही नाहिं।
देखें बनै न देखते, बिनु देखें अकुलाहिं।।
बिनु देखें अकुलाहिं, बिकल अँसुवन झरि लावैं।
सनमुख गुरुजन लाज भरी ये लखन न पावैं।।
चित्रहु लखि हरिचंद नैन भरि आवत छिन-छिन।
सुपन नींद तजि जात, चैन कबहुँ न पायौ इन।।
बिनु देखे अकुलाहिं, बिरह-दुख भरि-भरि रोवैं।
खुली रहैं दिन-रैन, कबहुँ सुपनेहुँ नहिं सोवैं।।
हरीचंद संजोग बिरह सम दुखित सदा ही।
हाय निगोरी आँखिन सुख सिरज्यौ ही नाहीं।।
बिनु देखें अकुलाहिं, बावरी है कै रोवैं।
उघरी-उघरी फिर, लाज तजि सब सुख खोवैं।।
देखैं श्रीहरिचंद नैन भरि, लखैं न सखियाँ।
कठिन प्रेम गति, रहत सदा दुखिया ये अँखियाँ।।

पद (राग-जिला काफी)
मेरौ मन न रहत गिरिधर बिन माई।
आए हरि, परि निरख न पाई नीकैं रूप-निकाई।
उर में डर गुरुजन कौ, सजनी! ये कुल-लाज भई दुखदाई।।
जौलौं छबि नयनन में दरसी, सब दुख गयौ भुलाई।
वे निकसे, तब ते अँखियन की अब लौं पीर न निकसन पाई।।
वे निरमोही प्रीत न जानैं, मैं उन हाथ बिकाई।
रूप जाल में फस्यौ मीन-मन, अब तौ यह दुख सह्यौ न जाई।।
स्याम-सिंधु में नेह-नवरिया बिरह भँवर में आई।
डूबौ-तरौ, मोहि नहिं चिंता, मैं बल्ली हरि हाथ गहाई।।

समाजी-
पद (राग-देस, तीन ताल)
मनमोहन बनवारी! तेरी साँवरि सूरत पै वारी ।।टेक।।
मोर-मुकुट, मकराकृत कुंडल, अरु अलकैं घुँघरारी।
मृगमद-तिलक सुभाल बिराजत, हैं अँखियाँ अनियारी।।
गजगति चाल चलत गिरधर पिय, जुबती मन फँदवारी।
सूर स्याम की या छबि ऊपर तन-मन-धन सब वारी।।

(ठाकुरजी छद्म वेष धरि पधारैं)
श्रीकृष्ण (देवी)-
राग (गुंजमाल, काफी मिश्र)
रे प्रेम! सुन चुके हैं तेरी अकथ कहानी।
आँखों में झलकती है इसकी असल निशानी।।
मैं-तू जहाँ नहीं है, तेरी गुजर वहीं है।
दुनियाँ दुरंगि प्यारे प्रेमी कहीं-कहीं है।।
तेरी गली में पड़कर लाखों ने खाक छानी ।।1।।
तेरी तनक खुमारी है विष-बुझी कटारी।
कल थे जो चक्रवर्ती, वे आज हैं भिखारी ।।
पर्दे में छिप गये हैं वे रूप के गुमानी ।।2।।

जब तक तू डाल में है, मस्तीकी चाल में है।
दुनिया तो है हमारी, तू इस खयाल में है।।
पतझड़ के बाद प्यारे! ढल जायेगा ये पानी ।।3।।
हम और क्या कहेंगे, तुमको सदा चहेंगे।
ओठों पै मुहर तेरी, कायम उसे रखेंगे।।
हे स्याम-भ्रमर! दिलपर लिख ले यही निशानी ।।4।।
तेरी अकथ कहानी।
सखी- क्यौं, बीर! तू कैसैं घबराई भई आय रही है?
दूसरी सखी- अरी सखी! एक देवकन्या है कि इंद्र के अखारे की अप्सरा है, किंनरी है अथवा परी है। बड़ी ही सुंदर है। उपबन में बीना बजावती, कुछ मधुर-मधुर स्वरन सौं अलापती भई, प्यारी जू के महलन की ओर आय रही है। वाकूँ कोई पौरिया न रोकि देय, कहूँ उलटी ही न बगदि जाय, यासौं प्यारी जू सौं बिनती करि वाकौं यहाँ बुलाय लेउ।
सखी- हे प्यारी जू! एक बड़ी ही सुंदर देवकन्या-तुल्य बीना बजावती, कछु गावती, आप के महलन माँऊँ ह य आय रही है। आग्या होय तो वाकूँ बुलाय लाऊँ।
श्रीजी- हाँ, सखी! बेगि ही जाउ, आदरसहित वाकौं बुलाय लाऔ।
क्रमशः............

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