प्रेम प्रकाश लीला

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला
निरंतर.........
(श्लोक)
अकारुण्यः कृष्णो यदि मय तवागः कथमिंद
मुधा मा रोदीर्मे कुरु परमिमामुत्तरकृतिम् ।
तमालस्य स्कन्धे सखि कलितदोर्वल्लरिरियं
यथा वृन्दारण्ये चिरमविचला तिष्ठति तनुः ।।

अर्थ- जमुना किनारें जो तमाल बृक्ष  दीखै है, वाकौ वर्ण मेरे प्रीतम-जैसौ स्याम है। बस, मेरे लिए इतनौ ही पर्याप्त है कि वा तमाल बृच्छ की मोटी साखा पै मेरे मृतक सरीर कूँ लिटाय दीजौं और मेरे दोऊ हाथन कूँ तमाल- साखा सौं लपेट अच्छी तरह बंधन लगाय दीजौं कि जासौं चिरकाल ताईं मेरौ यह सरीर बृंदावन में ही तमाल-साखा पै बिस्राम करतौ रहै। परंतु वा चित्र कूँ तौ एक बार औरहू देखि लऊँ, साच्छात तौ वा त्रैलोक- मोहन मुख चंद्र कूँ नहीं देख सकी? प्रान निकरिबे ते पहिलें वा चित्र कूँ औरहू दिखाय दै, जासौं मेरे प्रान सीतल है जायँ और वा त्रिभंग-सुंदर छबि में अनंत काल के ताईं लीन है जायँ।

सखी- प्यारी, वह चित्र तौ घर है।

श्रीजी- हाय! हाय! इतनौ हूँ सौभाग्य नहीं। आऔ, प्यारे प्राणेस्वर!
  
     (दोहा)
एक बार तौ आय कैं, नाथ! दरस दै जाव ।
अंतिम की अभिलाष है, याहि मती ठुकराव ।।
(श्रीकृष्ण पधारैं)
श्रीकृष्ण-
(दोहा)
हे राधे मन-भाँवती, रूप-रासि, गुन-धाम ।
तेरी ही स्वासा बँध्यौ आयौ तेरौ स्याम ।।
(दोनो अंक भरि भेटैं)(पटापेक्ष)

एक वृद्धा-क्यों री, बहू! कहाँ गई हती? इतनी देर कैसें भई?

बधू-अजी सासूजी, मैं जमुना स्नान करिबे गई हती।

वृद्धा-हूँ! हूँ! वहाँ राधा मिलि गई होयगी, सो वासौं बतरावन घुटी होयगी। हमें तेरी यह बात अच्छी नायँ लगै, भले घर की बहू बेटी कहा ऐसैं डोलैं? तैनें अब राधा कौ संग लियौ है। वानैं तौ अपने कुल कौ नाम खूब ऊंचौ करि राख्यौ है, वह तौ वा नंद के छोरा सौं बतरायौ करै है।

    पद (राग पीलू, तीन ताल)
कब की गई न्हान तू जमुना, यह कहि-कहि रिस पावै ।
राधा कौ तुम संग करत हौ, ब्रज उपहास उड़ावै ।।
वे हैं बड़े महर की बेटी, तो ऐसी कहि आवै ।।
सुनौ सूर यह उनही भावै, यह कहि-कहि जो डरावै ।।
(श्रीजी पर्दा की ओर सौं सुनि, घबराय कान बंद करैं; गागर लैकैं जमुना जानौं)

(श्रीकृष्ण अकेले जमुना पै बैठे गावैं)
श्रीकृष्ण-
(कबित्त)
फूलि रही लता, द्रुम-डारी हरी झूमि रहीं,
चहुँ हरियाली सौं लुभात अति जीकौ है।
दादुर-पुकार, झनकार सुनि झींगुर की,
मोरन कौ नृत्य सब्द कोयल अमी कौ है।।
बादर की गरज औ लरज नीकी दामिनि की,
पवन सुगंध मानों वार बरछी कौ है।
गहबर बन नीकौ, बास खोर साँकरी कौ,
लगे कुँवर नहिं जीकौ आज प्रिया बिना फीकौ है।
         (श्रीजी जल भरिबे पधारैं)
समाजी-
पद (राग खंभावती, तीन ताल)
कृष्ण दरस सौं अटकी ग्वालिन ।
बार-बार पनघट पै आवत, सिर जमुना जल-मटकी ।।
मन-मोहन कौ रूप-सुधा-निधि पिवत प्रेम-रस गटकी ।
कृष्नदास धनि-धन्य राधिका, लोक-लाज सब पटकी ।।

पद (राग देश, तीन ताल)
चितवनि रोकें हूँ न रही ।
स्याम-सुंदर सिंधु सनमुख सरिता उमगि बही ।।
प्रेम सलिल प्रबाह भँवरनि मिति न कबहुँ लही ।
लोल लहर कटाच्छ, घूँघट-पट करार ढही ।।
थके पलकन नाव धीरज परत नाँहि गही ।
मिली सूर समुद्र स्यामहिं फिरि न उलटि बही॥
क्रमश...........

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