गपोदेवी 2

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीगोपदेवी-लीला
निरंतर........
पूतना-सकट-बक-धेनुक-से दैत्य हने,
कालिंदी कौ कष्ट मेट्यौ काली नाग लाय कैं।
दावानल पान कियौ, अंगुरी पै गिरि धार्यौ,
थाके चारौं बेद, सेष हारे जस गाय कैं।।

(कबित्त)
जाहि निज भक्तन सौ और कोई प्यारौ नाहि,
अज-सिव-दाऊ-बाम जाहि नहिं प्यारी है।
भक्तन के पाछे डोलै, हित की सी बानी बोलै,
प्रेम के अधीन नट-नागर बिहारी है।।
गोपिन के मन भाई नाना बिधि पूरी करै,
छेड़-छाड़ वाकी सब गोपिन सुखकारी है।
साँवरी सखी!री!तू प्रेम पंथ जानै नहीं,
बोलै पंडिता-सी, पै निपट गँवारी है।।गोपदेवी- अहाहा, बलिहार!बलिहार!आप नै मोकूँ गँवारी बताई, सो तौ ठीक ही है।क्यों कि मैं प्रेम-पंथ कूँ नहीं जानूँ हूँ।अब कृपा करि आप प्रेम रतन सौं कछु परिचय कराय देऔ तौ अपनौ बड़ौ भाग्य मानूँगी।
श्रीजी- हाँ बीर!तू अब सत्य बोली।अर तू या प्रेम की कछु अधिकारिनी प्रतीत होय है, तासौं किंचित् मात्र कछु कहूँ सो ध्यान सौं सुन।
(श्लोक)
आदौ श्रद्धा ततः साधुसङ्गोऽथ भजनक्रिया ।
ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात् तदसक्तिस्ततो भवेत् ।।
अर्थ- प्रथम तौ प्रेमी भक्तन के हृदय में स्रद्धा उत्पन्न होय है, फिर उन कूँ कौ संग मिलै है, फिर भजन जानि कैं भजन बनै है, फिर वा भजन सौं पाप कौ नास होय है, तब निष्ठा दृढ़ होय है, परंतु पाँच बिघ्न केआयबे सौं निष्ठा दृढ़ नहीं होय है।
गोपदेवी- ये पाँच विघ्न कौन से हैं?
श्रीजी- लय, बिक्षेप, अप्रपत्ति, रसास्वाद और कषाय।
भजन-कीर्तन में नीद आनौं, यासौं लय कहैं हैं।
भजन-कीर्तन में ब्यौहार की बात करनौं, यासौं बिक्षेप कहैं हैं।क्रमश........

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