श्रीराधा महिमा
श्रीराधा माधव चिन्तन -
श्रीराधा-महिमा
निरंतर.......
वे अपनी एक अंतरंग सखी से कहती हैं--
सखी री!हौं अवगुन की खान।
तन गोरी, मन कारी भारी, पातक पूरन प्रान।।
नहीं त्याग रंचक मो मन में भर्यौ अमित अभिमान।
नहीं प्रेम कौ लेस, रहत नित निज सुख कौ ही ध्यान।।
जग के दुःख-अभाव सतावैं, हो मन पीड़ा-भान।
तब तेहि दुख दृग स्त्रवै अश्रु जल, नहिं कछु प्रेम-निदान।।
तिन दुख-अँसुवन कौं दिखरावौं हौं सुचि प्रेम महान।
करौं कपट, हिय-भाव दुरावौं, रचौं स्वाँग स-ज्ञान।।
भोरे मम प्रियतम, बिमुग्ध ह्वै करैं बिमल मन गान।
अतिसय प्रेम सराहैं, मोकूँ परम प्रेमिका मान।।
तुम हूँ सब मिलि करौ प्रसंसा, तब हौं भरौं गुमान।
करौं अनेक छद्म तेहि छिन हौं, रचौं प्रपंच-बितान।।
स्याम सरल-चित ठगौं दिवसनिसि, हौं करि विविध विधान।
धृग् जीवन मेरौ यह कलुषित धृग् यह मिथ्या मान।।
इस प्रकार श्रीराधाजी अपने को सदा-सर्वदा सर्वथा हीन-मलिन मानती हैं, अपने में त्रुटि देखती हैं- परम सुन्दर गुणसौन्दर्य निधि श्यामसुन्दर की प्रेयसी होने की अयोग्यता का अनुभव करती हैं एवं पद-पदपर तथा पल-पल में प्रियतम के प्रेम की प्रशंसा तथाउनके भोलेपन पर दुःख प्रकट करती हैं।श्यामसुंदर के मथुरा पधार जाने पर वे एक बार कहती हैं--
सद्गुणहीन रूप-सुषमा से रहित, दोष की मैं थी खान।
मोहविवश मोहन को होता, मुझमें सुन्दरता का भान।।
न्यौछावर रहते मुझपर, सर्वस्व स-मुद कर मुझको दान।
कहते थकते नहीं कभी - ‘प्राणेश्वरि!’ ‘हृदयेश्वरि!’ मतिमान।।
‘प्रियतम!छोड़ो इस भ्रम को तुम’ बार-बार मैं समझाती।
नहीं मानते, उर भरते, मैं कण्ठहार उनको पाती।।
गुण-सुन्दरतारहित, प्रेमधन-दीन कला-चतुराई हीन।
मुर्खा, मुखरा, मान-मद-भरी मिथ्या, में मतिमंद मलीन।।
रहता अति संताप मुझे प्रियतम का देख बढ़ा व्यामोह।
देव मनाया करती मैं, प्रभु!हर लें सत्त्वर उनका मोह।।
श्रीराधा के गुण-सौन्दर्य से नित्य मुग्ध प्रियतम श्यामसुन्दर यदि कभी प्रियतमा श्रीराधा के प्रेम की तनिक भी प्रशंसा करने लगते, उनके प्रति अपनी प्रेम-कृतज्ञता का एक शब्द भी उच्चारण कर बैठते अथवा उनके दिव्य प्रेम का पात्र बनने में अपने सौभाग्य-सुख का तनिक-सा संकेत भी कर जाते तो श्रीराधाजी अत्यन्त संकोच में पड़कर लज्जा के मारे गड़-सी जातीं।क्रमश.......
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