राधिकाष्टकम

*श्रीराधिकाष्टकम्*

*दिशी दिशी रचयन्तीं संरन्नेत्रलक्ष्मी-*
      *विलासित-खुरलीभि:खञ्जरीटस्य खेलाम्।*
*ह्रदयमधुपमल्लीं बल्लवाधीशसूनो-*
      *राखिल-गुण-गभीरां राधिकामर्चयामि*।।

में उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं कि, जो प्रत्येक दिशा में विचरण करने वाले अपने नेत्रों की शोभारूप विलासके अभ्यासों के द्वारा खञ्जनपक्षी के खेल की रचना करती हैं, अर्थात राधिका जिस दिशाकी ओर दृष्टि पात करती हैं, वह दिशा माने खञ्जनमाला से व्याप्त हो जाती है।तात्पर्य-जिनके दोनों नेत्र खञ्जन के समान हैं एवं जो नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के हृदय रूप भ्रमर के लिए, मल्लिका के पुष्प के समान है। भ्रमर के लिए मल्लिका जिस प्रकार आनन्ददायिनी है, उसी प्रकार राधिका श्रीकृष्ण हृदय के लिए आनन्ददायिनी हैं तथा जो समस्त गुणों के कारण अतिशय गम्भीर हैं।।

*पितुरिह वृषभानोरन्ववाय-प्रशास्तिं*
         *जगति किल समस्ते सुष्ठु विस्तारयन्तीम्*।
*व्रजनृपतिकूमारं खेलयन्तीं सखीभि:*
          *सुलभिणि निजकुण्डे राधिकामर्चयामि*।।

*शरदुपचित-राका-कौमुदीनाथ कीर्ति-*
       *प्रकर-दमनदीक्षा-दक्षिण-स्मरेवक्त्राम्*।
*नटदधभिदापाड्गोतानड़ग- रड़गा*
       *कलित-रूचि-तलड़गां राधिकामर्चयामि*

में उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जो अपने पिता श्रीवृषभानु जी के वंशकी प्रशंसा को इस समस्त जगत् में भली प्रकार विस्तारित करती रहती हैं एवं जो पुष्पों के पराग से सुगंधित अपने कुण्ड मे, ललिता आदि अपनी सखियों के सहित, व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण को खेल कराती रहती है, अर्थात सखियों सहित श्रीकृष्ण को जल से सिचाती रहती हैं।।

श्रीराधिका के अनुपम मुखमंडल का माधुर्य को आधारता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि

में, उन श्रीमती राधिका की पूजा करता हूं जिनका मन्दहास्युक्त मुखारविंद, शरद् ऋतु में वृद्धि को प्राप्त चंद्रमा की कीर्ति के समूह को दयन करने की दीक्षा में निपुण है, अर्थात शरद् ऋतु के पूर्ण चंद्रमा से भी परम मनोहर हे एवं श्रीकृष्ण चञ्चल कटाक्षपात से जिनका अनडंग रडंग परमवृद्धि का प्राप्त हो रहा हे तथा जिनके श्री अंग मे शोभा की तरंग नृत्य करती रहती है।।

*विघटित-मद-पूर्णत् क॓क-पिच्छ-प्रशस्तिम्*।
*मथुरिपु-मुख-बिम्बोद् गीर्ण-ताम्बुल-राग*
      *स्कुरदमल-कषोलां राधिकामर्चयामि*।।

*अमलिन-ललितान्तःस्नेह-सिक्तान्तरंग*-
     *मखिल-विधविशाखा-सख्य-विख्यात-शीलाम्*।
*स्फुरदधभिदर्घ-प्रेम-माणिक्य-पेटीं*
      *धृत-मधुर-विनोदां राधिकामर्चयामि*।।
*अतुल-महसि वृन्दारण्यराज्येऽभिषिक्तां*
       *निख्ल-समय-भर्तुः कार्तिकस्याधिदेवीम्*।
*अपरिमित-मुकुन्द-प्रयेसी-वृन्दमूख्यां*
       *जगदघहर-कीर्तिं राधिकामर्चयामि*।।

मे, उन श्रीमती राधाकाजी की पूजा करता हूं जो अनेक प्रकार के पुष्पों से सुशोभित, अपने केशपाश के बलपूर्वक आक्रमण के द्वारा, मदमाते मयूर के पंखो की प्रशंसा को तिरस्कृत करने वाली हैं एवं जिनके निर्मल कपोल मुखबिबं से निकलते हुए तांबूल रस की ललिमा से स्फूर्ति पा रहे है।

श्रीराधिका अपनी सखियों की एवं अपने नायक की मुख्य प्रेम पात्री है, इस भाव को वर्णन करते हुए कहते हैं कि-

      में उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जिनके अन्तःकरण ललिता सखी के निर्मल आन्तरिक स्नेह से सित्त (सरस) रहता है एवं जिनका शीलस्वभाव विशाखा सखी के समस्त प्रकार की मित्रता से विख्यात हे एवं जो श्रीकृष्ण के दमदमाते हुए प्रेमरूपी अमूल्य रत्नों की मंजूषास्वरूप है तथा जो मधुरविनोद को धारण करती रहती हैं।।

    मे उन श्रीमती राधीका जी की पूजा करता हूं जो अतूलनीय प्रभाव वाले श्रीवृंदावन के राज्यपद पर अभिषिक्त हैं, (ब्रह्मामोहन लीला में एक कोने में ही करोडों ब्रह्माण्डों को दृष्टिगोचर करा देने से एवं वैकुण्ठ से भी अतिशय श्रेष्ठ मधुरामण्डल के भी उतमप्रदेश होने के कारण, वृंदावन का प्रभाव अतुलनीय हैं।यह वृंदावन सर्वदा वसन्त ऋतु से सेवित होने के कारण एवं आनंआनंदमय श्रीकृष्ण द्वारा

*हरिपदनख-कोटी पुष्पों पर्यन्त-सीमा*-
      *तटमपि कलयन्तीं प्राणकोटरेभीष्टम्*।
*प्रमुदित-मदिराक्षी-वृन्दग्ध्य-दीक्षा*-
       *गुरूमति-गुरूकीर्ति राधिकामर्चयामि*।।
*अमल-कनक-पट्टोद्घष्ट-काश्मीर-गौरीं*
        *मधुरिम-लहरीभि:संपरीतां किशोरीम्*।
*हरिभुज-परिरब्धां लब्ध-रोमाञ्च-पालिं*
         *स्फुरदरूण-दुकूलां राधिकामर्चयामि।।*

अधिष्ठित होने के कारण, सदा उत्सवरूप बना रहता है) अतः इस प्रकार के वृंदावन के प्राज्य राज्य के आधिपत्य का उत्कर्ष, पराकाष्ठा को प्राप्त कर रहा है (श्री राधिका के राज्यभिषेक की कथा श्रील रूप गोस्वामी कृत ``श्रीदानकेलिकोमुदी'' नामक ग्रंथ मे निबद्ध है) एवं जो राधिका, सभी मासों की अधिअधिपति कार्तिक मास की अधिष्ठात्री देवी है जो श्रीकृष्ण के पद्दमहिषी  हैं तथा  जिनकी कीर्ति समस्त जगत के पापों को हरने वाली है।

    श्रीश्रीमती राधिका के लोकानतर धर्म को दिखाते हुए कहते हैं कि मे उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जो श्रीकृष्ण के पादपद्मो के सूक्षम नखाग्र-भाग को, अपने करोडों प्राणों की अपेक्षा  अधिक प्रियतम जानती है, अर्थात जो कृष्ण प्राण है एवं उनको भिन्न प्रकार की चातुरी की शिक्षा देने में, अतः जिनकी महती कीर्ति विद्यमान है।

श्रीराधिका जी के माधुर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि-मे उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जो निर्मल निकष पाषाण पर पीसे हुए कुंकुम के समान गौरवर्ण वाली है एवं जो माधुर्य के तरंगों से परिव्याप्त है, नित्य किशोरी हैं तथा जो श्रीकृष्ण की भुजाओं से आलिंगन होते ही, पुलकायलीको प्राप्त हो जाती है और उनकी ओढनी चमकीले अरूणवर्ण वाली है।

*तदमल-मधुरिम्णां काममाधारूपं*
      *परिपठति वरिष्ठं सुष्ठु राधाष्टकं यः*।
*अहिम-किरण-पुत्री-कूल-कल्याण-चंद्र*
     *स्फुटमखिलमभीष्टं तस्य तुष्टस्तनोति*
      

        *(श्रीमद् रूप गोस्वामी विचरितं)*

जो व्यक्ती, श्रीमती राधिका जी के स्वरूप-गुण-विभूती आदि माधुर्य के यथेष्ट अधारस्वरूप, इस उत्कृष्ट `राधिकाष्टक' का भली प्रकार प्रेमपूर्वक पाठ करता है, उस व्यक्ति के समस्त अभीष्ट को, सूर्य पुत्री यमुना के कमनीय-कलू के कल्याण चन्द्र श्रीकृष्णचंद्र प्रसन्न होकर, स्पष्ट ही विस्तारित करते रहे हैं।इस अष्टकमें `मालिनी' नामक छन्दे हैं

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