राधा माधव चिंतन

श्रीराधा माधव चिन्तन


श्रीराधाभाव की एक झाँकी
निरंतर..........।
प्रेम-सुधा-सागर राधा में उठतीं विविध विचित्र तरंग।
देख विमुग्ध हुए उद्धव अति, बरबस विवश हुए सब अंग।।
उदित नवीन प्रेम-सरिता शुभ बढ़ी अचानक, ओर न छोर।
भू-लुण्ठित, तन धूल-धुसरित शुचि, उद्धव आनन्दविभोर।।

इस प्रकार अभिन्न स्वरूपा होने पर भी श्रीराधारानी अपने को प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख से वन्चित करके उनका सुख चाहती हैं। उनका सारा श्रीकृष्णानुराग, श्रीकृष्णसेवन श्रीकृष्ण सुख के लिये ही है। वे जब यह सोचती हैं कि श्रीकृष्ण  को मुझसे वह सुख नहीं मिलता, जो अन्यत्र मिल सकता है तो वे देवता को मनाती हैं कि श्रीकृष्ण मुझको छोड़कर अन्यत्र सुख प्राप्त करें।
उनकी सखी गोपियाँ भी श्रीराधा-श्यामसुन्दर के सुख सम्पादन में ही नित्य लगी रहती हैं। वे कभी श्यामसुन्दर से मिलती भी हैं तो उनके रसास्वादन की वृद्धि के लिये ही, स्वसुख के लिये नहीं। इसी प्रकार जिनमें नवप्रीति भाव का प्रस्फुटन हुआ है, तुलसी-मन्जरी की भाँति अथवा नवाद्गत पल्लव के अग्रभाग के सदृश जो नवीन रसभाव युक्त है, वे मन्जरीगण भी नित्य-निरन्तर श्रीश्यामा-श्याम-युगल के सुखसम्पादन अथवा प्रीति वहन में ही अपने को कृतार्थ मानती हैं। उनमें तनिक भी निज सुख-भोग का न तो प्रलोभन है, न दूसरे का सुख-सौभाग्य देखकर ईर्ष्याजनित जलन है।
एक बार श्रीराधिकाजी ने मणिमन्जरी के प्रेम-भाव का आदर्श देखने के लिये एक सखी को उनके पास भेजकर उसी की ओर से यह कहलवाया— ‘सखी ! श्रीललिता, विशाखा आदि श्रीराधा-माधव की सेवा में सखी भाव से तो रहती ही हैं। कभी-कभी वे नायिका के रूप में भी श्यामसुन्दर के समीप पधारती हैं। तुम भी इसी प्रकार श्रीकृष्ण के समीप जाकर उन्हें सुख प्रदान करो और स्वयं उनसे सुख प्राप्त करो। श्रीकृष्ण-मिलन के समान सुख की कहीं तुलना तो दूर रही, तीनों लोकों और तीनों कालों में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। तुम्हारा रूप-गुण, सौन्दर्य, माधुर्य, चातुर्य— सभी विलक्षण हैं; अतएव तुम इस परमानन्द से वंचित क्यों रहती हो?

              श्यामसुन्दर के समीप जाकर उनका प्रत्यक्ष सेवानन्द प्राप्त करो।’ इस बात को सुनकर मणिमन्जरी ने उक्त सखी से कहा— ‘बहिन! कल्याणमयी श्रीराधा श्रीश्यामसुन्दर के साथ मिलकर जो सुख प्राप्त करती हैं, वही मेरे लिये मेरे अपने मिलन से अनन्तगुना अधिक सुख है। मैं अपने लिये दूसरे किसी सुख की कभी कल्पना ही नहीं कर सकती। तुम मुझे क्यों भुलाती हो? मुझे तो तुम भी यही वरदान दो कि मैं श्रीराधा-माधव के मिलन-सुख को ही नित्य-निरन्तर अपना परम सुख मानूँ और उसी पवित्र कार्य में अपने जीवन का एक-एक क्षण लगाकर अनिर्वचनीय और अचिन्त्य सुख प्राप्त करती रहूँ।’ यही प्रेम की महिमा है।
इसी से इस पवित्र सर्वत्यागमय प्रेम की तुलना में इन्द्र का पद, ब्रह्मा का पद, सार्वभौम साम्राज्य, पाताल का राज्य, योगसिद्धि एवं मोक्ष पर्यन्त सभी नगण्य हैं; क्योंकि उन सभी में ‘स्व-सुख-कामना’ का किसी-न-किसी अंश में अस्तित्व है, पूर्ण त्याग नहीं है। इस पूर्ण त्याग को ही आदर्श मानने वाला मानव त्याग के मार्ग में अग्रसर होकर परम प्रेम और परमानन्द को प्राप्त करके धन्य होता है!
घर, पड़ोस, गाँव, देश, विश्व, विश्वात्मा और सबके मूल स्वरूप सर्वाधार, सर्वमय, सर्वातीत भगावन् के लिये जितना-जितना ही त्याग होता है, उतना-उतना ही भोकासक्ति, प्राणिपदार्थों की ममता, विषयकामना, मिथ्या अहंकार का नाश होकर दिव्य प्रेम प्राप्त होता है और उतना-उतना ही दिव्य मधुर अनन्त आनन्द बढ़ता है। इसी से भक्तों ने प्रेम को पुरुषार्थ-चतुष्टय के मोक्ष से भी उच्चतम पन्चम पुरुषार्थ बताया है।
मानव के लिये इसी से परम कर्तव्य है— सर्वत्याग। त्याग का अनिवार्य फल है— त्यागमय अनन्यप्रेम और त्यागमय प्रेम का ही परिणाम है— विशुद्धतम दिव्य आनन्द!
क्रमश।.......

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