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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीगोपदेवी-लीला
निरंतर......

(दोहा)
छिनहिं चढ़ै, छिन ऊतरै, वह तौ प्रेम न होय।
अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय।।
प्रेम-प्रेम सब कोई कहै, कठिन प्रेम की रीत।
आदि अंत निबहै नहीं, बारू की सी भीत।।
जिहि दुख सम नहिं और सुख, सुख की गति कहै कौन।
वारि-फेरि ‘ध्रुव’ प्रेम पैं डारि चतुर्दस भौन।।
चलत रहत दिन रैन, प्रेम-बारि-धारा नयन।
जागत अरु सुख सैन, चितै चकित इत-उत रहै।।
तृन समान है जाय, प्रभुता सब त्रैलौक की।
जब उपजै मन माँहि अद्भुत रंचक प्रेम तब।।
मधु.- अरे भैया! प्रेम कैसें होय है? कहा मैं काहूँ सौं प्रेम नहीं कर सकूँ हूँ।
(श्लोक)
दर्शने स्पर्शने वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्ग स स्नेह इति कथ्यते ।।

अर्थ- देखिबे ते, छीबे ते, सुनिबे ते, बोलिबे ते जहाँ अंतःकरन द्रवीभूत है जाय- हृदय पसीज उठै, वहाँ ही समझ लेउ कि प्रेम कौ आविर्भाव है गयौ है।
मधु.- दादा! जैसें पत्तर के ऊपर मैं लडुआन के दरसन कर लऊँ हूँ तौ मेरे मुँह में पानी भरि आवै है, और दुपहरकूँ माँखन सौं चुपरी भई रोटी की सुगंध ते ही मोकूँ रोमांच है आवै है, ठंडौ जल पोये ते अथवा मिर्च खाये ते आँख मुँदि जायँ हैं, ये सब चिह्न प्रेम के ही होयँ हैं। मैं अब समझ गयौ; बस, अब तू श्रोता बन जा और मैं तोकूँ अपने अनुभव के चिह्नन सौं परिचय कराऊँ हूँ- सुन, कान ऊँचे कर।

श्रीकृष्ण- अरे भोजन-भट्ट! तू कहा सुनावैगौ। चल, घर चलैं।

मधु.- वाह, वाह! तैंने ये कहा कही। देख, बेदरूप चार बड़े-बड़े लड्डू, शास्त्ररूप छै सकोरा खीर, पुरानरूप अठारह पूरी-इतनेन कौ तौ मैं नित पाठ कर लऊँ हूँ और शुद्धाद्वैत मत सौं श्वेत गौ के पाँच सेर दूध सौं अर्चना कर लऊँ हूँ और पीछें फल-फलैरीन की ऐसी धुन लगाऊँ हूँ कि भजनानंदी साधु मोसौं इर्षा करिबे लगैं हैं। देख, तू मेरे बचनन में श्रद्धा राखि कैं सुन; नहीं तौ तोकूँ मेरे पेटरूप पुरान की निंदा कौं पाप लगैगौ।

(कुंडलिया)
भूखौ भटकत फिरत है, भूलि जात सब नेम।
बड़े-बड़े पंडित कहि मरे, पेट भरे कौ प्रेम।।
पेट भरे कौ प्रेम, चून की सब चतुराई।
नंगौ दुरि जाय बैठि, सो भूखौ देत दुहाई।।

    सुनि मनसुख के बैन, बिना रोटी जग रूखौ।
प्रेम-नेम कहा करै, मरै जब भटकत भूखौ।।
कह, दादा! ठीक है न?
श्रीकृष्ण- अरे बावरे, पेट की कथा में प्रेम कौ कहा काम। मैं जा प्रेम की कह रह्यौ हूँ, सो तौ अति कठिन है।
(दोहा)
प्रेम-पंथ अति ही कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं।
चढ़ि कैं मोम तुरंग पै चलिबौ पावक माँहिं।।
(घर कूँ प्रस्थान)
श्रीजी- सखी! प्रानबल्लभ चले गये।
(सवैया)
बिछुरे पिय कें जग सूनौ भयौ, अब का करियै? किहिं पेखियै का।
सुख छाँड़ि कैं संगम कौ तुम्हरे इन तुच्छन कौं अब लेखियै का।।
हरिचंद जो हीरन कौ ब्यौहार, तौ काचन कौं लै परेखियै का।
जिन आँखिन में तव रूप बस्यौ, उन आँखिन सौं अब देखियै का।।
अंतर हौ किधौ अंत रहौ, दृग फारि फिरौं कि अभागिन मोरौं।
आगि जरौं, अकि पानी परौं, अब कैसी करौं, हिय का बिधि धीरौं।।
जो घन आनँद ऐसी रूचि तौ कहा बस है अहो प्राननि पीरौ।
पाउँ कहाँ हरि! हाय तुम्हैं! धरनी में धसौं कि अकासहिं चीरौं।
क्रमश.........

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