श्यामसुंदर

श्‍याम-सुन्‍दर
श्रीकृष्‍ण की प्रेम-स्‍वरुपता को स्‍थापित करने वाला प्रधान पुराण श्रीमद्भागवत है। कृष्‍णोपासक वैष्‍णव संप्रदायों में इस पुराण का आदर बहुत अधिक है। किन्‍तु इसमें एवं अन्‍य पुराणों में श्रीकृष्‍ण प्रेम-पात्र के रुप में सामने आते हैं। नंद-यशोदा, सखागण और ब्रज-गोपिकाओं के, जिनमें श्रीराधा भी सम्मिलित हैं, एक मात्र प्रेमाधार वहीं हैं। वे परात्‍पर तत्‍व है और उनका समस्‍त परिकर और धाम उनकी विभिन्न शक्तियों के विलास हैं।

वृन्‍दावन-रस के रसिकों ने श्‍याम सुन्‍दर को प्रेमी के रूप में चित्रित किया है। प्रेमी वह जो प्रेम तृषा से पूर्ण है। प्रेमी का विकास प्रेम तृषा के द्वारा ही होता है। जिसमें जितनी प्रेम तृषा होती है वह उतना ही बड़ा प्रेमी होता है। यह तृषा ही प्रेमी को प्रेमाधीन बनाती है। अपनी तृषा के कारण प्रेमी सहज रूप से प्रेम पात्र के अधीन होता है। प्रेम-तृषा जितनी बढ़ती है उतनी ही प्रेमाधीनता बढ़ती है और प्रेमाधीनता जितनी-बढ़ती है उतनी ही प्रेमी की अन्‍य अधीनताएँ, उसके अन्‍य बन्‍धन, शिथिल होते जाते हैं। वह अन्‍य दिशाओं से सिमिटता जाता है। यह बात जितनी सत्‍य लोक के प्रेमियों के लिये है, उतनी ही प्रेमी बने हुए भगवान के लिये है। प्रेम बनने पर न तो जीव ही अपने ठिकाने पर रहता है ओर न भगवान ही। प्रेम-राज्‍य में प्रवेश करने पर दोनों की स्थिति कुछ-की-कुछ बन जाती है और उनको उनके पूर्व रूप और गुणों से पहिचानना कठिन हो जाता है। ‘प्रेम की एक मात्र सीमा’ और ‘मधुर-रस-सुधासिन्‍धु के सार से अगाध बनी हुई’ श्रीराधा के प्रेम में पड़ कर श्‍याम सुन्‍दर चारों ओर से इतने सिमिट गये हैं कि सृष्टि-रचना और पालन की बात तो दूर रही, वे अपने नारदादि भक्तों को भूल गये हैं। अपने श्रीदामा आदि मित्रों से नहीं मिलते और अपने माता-पिता के स्‍नेह की वृद्धि नहीं करते। अब तो मधुपति केवल कुंज-वीथियों की उपासना, करते हैं।'

दूरे सृष्‍ट्यादि वार्ता कलयति मनांग नारदादीन्‍स्‍वभक्तान्।
श्रीदामाद्यै र्सुहृद्भिनं मिलति च हरेत्‍स्‍नेह वृद्धिं स्‍व पित्रो:।।
किन्‍तु प्रेमैक सीमां मधुर-रस-सुधासिन्‍धु सारै रगाधां।
श्रीराधा मेव जानन् मधुपति रनिशं कुंज वीथी मुपास्‍ते।।[1]

भक्त और भगवान के बीच का प्रेम-बंधन बड़ा सुदृढ़ माना जाता है। भगवान की भक्त-वशता के अनेक चमत्‍कार पूर्ण वर्णन भक्ति-साहित्‍य में मिलते हैं। भगवान के द्वारा इस बंधन की विस्‍मृति का अर्थ यह है कि ‘कुंज-वीथियों की उपासना’ में उनको अपनी भगवत्ता ही विस्‍मृत हो गई है। वे शुद्ध प्रेम-स्‍वरूप बन गये हैं। उनका प्रेम इतना उज्‍वल और एक रस बन गया है कि उसके आगे भगवत्ता फीकी पड़ गयी है। उनकी ‘निकुंज' की स्थिति का वर्णन करते हुए श्री ध्रुवदास कहते हैं,’ यहाँ श्‍यामसुन्‍दर ने अपने बड़प्‍पन को इस प्रकार छोड़ा है कि अब उसकी बातें भी उनको नहीं सुहातीं। वे श्रीराधा को पाकर अपने भाग्‍य को धन्‍य मानते हैं और अब उनकी एक मात्र अभिलाषा श्री राधा के नैनों में अंजन बनकर रहने की है।'

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