गोप6

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीगोपदेवी-लीला
निरंतर .............
तन घनस्याम पीतपट सोभित, हृदय पदिक की पाँति दिपतिदुति।
तन बन धातु बिचित्र बिराजत, बसी अधर धरें जु ललित गति।।
कर जु मुद्रिका कर कंकन-छबि, कटि किंकिनि नूपु पग भ्राजत।
नख-सिख कांति बिलोकि सखी री, ससि अरु भानु मदन तन लाजत।।
नख-सिख रूप अनूप बिलोकत, नटवर भेस धरें जु ललित अति।
रूप-रासि जसुमति कौ ढोटा, बरनि सकै नहिं सूरहु अपमति।।

(मधुमंगल-प्रस्थान, श्रीकृष्ण  की झाँकी)
श्रीकृष्ण-
(दोहा)
चंद्र कहूँ, तौ बनत ना, होत दिवस दुति छीन।
कमल बदन उपमा दिएं, निसि बिकास ते हीन।।
अर्थ- अहा! चंद्रमा कहूँ तो कैसैं कहूँ? ये दिन में प्रकासहीन रहै है। और कमल कहूँ तो कैसैं कहूँ; क्योंकि यह रात्रि में अपनौ मुख बंद करि लेय है। हे प्यारी बृषभानुजा! आपके मुख कौ प्रकास तो छिन प्रति बढ़तौ ही रहै है।

         समाजी-
(दोहा)
कर गहि डार कंदब की ठाड़े हैं छबि ऐन।
प्रिया-ध्यान माँहिक छके, रहे लाल झुकि नैन।
पद (राग-पीलू, ताल-रूपक)
ठाड़ौ नंद कौ गोपाल।
बाम भुज कर लकुट दीने, चरन परसत माल।।
रूप अद्भुत जोति कौ चहुँ ओर मंडल-जाल।
दास नागरि दृग रहे झुकि प्रिया ध्यान रसाल।।
सखी-
अष्टपदी (राग-पीलू, तीन ताल)
पश्यति दिशि दिशि रहसि भवन्तं
त्वदधरमधुरमधुनि पिबन्तम्।
नाथ हरे जय नाथ हरे सीदति राधा वासगृहे ।।1।
त्वदभिसरण रभसेन वलन्ती
पतति पदानि कियन्ति चलन्ती।। नाथ हरे. ।।2।।

           

विहितविशदविषकिसलयवलया
जीवति परमिह तव रतिकलया।। नाथ हरे. ।।3।।
मुहुरवलोकितमण्डनलीला
मधुरिपुरहमिति भावनशीला।। नाथ हरे. ।।4।
त्वरितमुपैति न कथमभिसारं
हरिरिति वदति सखीमनुवारम् ।। नाथ हरे. ।।5।।
श्लिष्यति चुम्बति जलधरकल्पं
हरिरूपगत इति तिमिरमनल्पम् ।। नाथ हरे ।।6।।
भवति विलम्बिनि विगलितलज्जा
विलपति रोदिति वासकसज्जा।। नाथ हरे. ।।7।।
श्रीजयदेवकवेरिदमुदितं
रसिकजनं तनुतामितिमुदितम्।। नाथ हरे. ।।8।।

तुम बिनु दुखित राधिका प्यारी। तुव मय भइ तन-सुरति बिसारी।।
अधर मधुर मधु पियत कन्हाई। तुमहिं सबै दिसि परत दिखाई।।
मिलत चलत उठि तुम कहँ धाई। गिरि-गिरि परत बिरह दुबराई।।
किसलय-बलय बिरचि कर धारी। तुव रति-ध्यान जिअति सुकुमारी।।
कबहुँ रचति रस-रास सँवारी। जानति हमहीं मदन-मुरारी ।।
बदति सखिन सौं पुनि पुनि आली। अजहुँ न क्यौं आए बनमाली।।
लखि घन सम अँधियार भुलाई। तुव धोखे चूमति गर लाई ।।
तुव बिलंब अतिही अकुलाई। ब्याकुल रोवति सेज सजाई ।।
श्री जयदेव-रचित जो गावैं। ‘हरीचंद’ हरि-पद-रति पावै ।।
भाषा- हे नाथ, हे हरे, या समैं श्रीराधा अत्यंत ही ब्याकुल हैं। सकल जगत में आपकी भावना करि कैं जी रही हैं।

श्रीकृष्ण-
गोपकुमारसमाजमिमं सखि पृष्छ कदानुगतोऽहम् ।
कथमिव मामनुपश्यति दिशि दिशि कथमिव कलयति मोहम्।।
सखि हे! परिहर वचनविलासम् ।
गोपशिशूनां विदितमिदं मम जनयति गुरुपरिहासम् ।।
भावार्थ- अरी सखी, तू बिना विचारे कहा बोल रही है? मैं कब यहाँ ते गयौ? और तुम्हरी सखी मोय कहाँ देख लियौ? और वह काहे कौं विह्वल है रही है? मैं तो बन में बंसी बजावतौ गैया चराय रह्यौ हूँ। तुम यहाँ हूँ मेरे पीछे परी रहौ। भगवान, कहूँ चैन लैन देवोगी? देखौ, मेरी सखामंडली आस-पास में ही है, वो कहूँ सुन पावेंगे तो बड़ी हाँसी करैंगे। मोकूं जुबतिन सौं कहा प्रयोजन? ऐसी हँसी मोकूँ अच्छी नहीं लगै है; सखी, अब यहाँ ते पधार जा।
सखी- हे स्यामसुंदर, यह परिहास कौ समै नहीं है। हमारी प्रिया सखी के प्राण-जीवन संकट में हैं; यासों आप शीघ्र ही पधार उनकूं दरसन देऔ। अन्यथा या परिहास कौ फल आपही कूँ भोगनौ परैगौ। रोवौगे और पछितावौगे।
क्रमश.........

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