गोप7

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

श्रीगोपदेवी-लीला

मधु.- अरी सखी! जा कन्हैया कूँ तूं इतनो बड़ौ मानै है, वो तो हमारी जूठन खाय-खाय कैं और हम सूँ लड़ि-लड़ि कैं इतनौ बलवान है गयौ कि गिरिराज को उठाय लियौ, काली को नाथ लियौ। गिरिराज उठायबे के समैं तो हमने हू लट्ठन को सहारौ लगायौ। वामें वाकी कहा प्रभुता है? और जब हम रूसि जाय हैं, तब हमारे चरन पकरि कैं मनावै है। देख, चरनन के दरसन तो कर, कितने सुंदर हैं!
सखी- का ये ही सुंदर चरन हैं?
मधु.- हैं-हैं? परे कूँ मुँह फेरि लै, कहूँ नजर मत लगाई दीजो। कैसी आँखिन कूँ फारि-फारि कैं देखि रही हैं!
सखी- अरे मनसुखा! वे त्रिलोकीनाथ हैं, भक्त वत्सल भगवान् हैं, तो से दीन दासन कौ तौ वे आदर भाव राखैं हैं, याही में उन की प्रभुता है।
मधु.- चुप, दीन-दास कहि कैं हमारे नाम कूँ बिगारै? दीन और कोउ होयगौ। हम तो वाके सखा हैं।
सखी- अच्छौ, लाला! तू ही बड़ौ सही। परंतु अब तौ बताय तेरे संग के सखा कहाँ हैं?
मधु.- (जोर सूँ हँसि कैं) हाँ, अब बताऊँगौ। जमुना किनारे कंदब की डार पकरि कैं काहू कौ ध्यन धरि रह्यौ है, सूखी चली जा।

पद (राग सुघराई, तीन ताल)
सघन कल्पतरू तर मनमोहन।
दच्छिन चरन चरन पर दीन्हें, तनु त्रिभंग, मृदु जोहन।।
मनिमय जटित मनोहर कुंडल, सिखी-चंद्रिका सीस रही फबि।
मृगमद तिलक, अलक घुँघरारी, उर बनमाल, कहौं का वह छबि?

तन घनस्याम पीतपट सोभित, हृदय पदिक की पाँति दिपतिदुति।
तन बन धातु बिचित्र बिराजत, बसी अधर धरें जु ललित गति।।
कर जु मुद्रिका कर कंकन-छबि, कटि किंकिनि नूपु पग भ्राजत।
नख-सिख कांति बिलोकि सखी री, ससि अरु भानु मदन तन लाजत।।
नख-सिख रूप अनूप बिलोकत, नटवर भेस धरें जु ललित अति।
रूप-रासि जसुमति कौ ढोटा, बरनि सकै नहिं सूरहु अपमति।।

(मधुमंगल-प्रस्थान, श्रीकृष्ण  की झाँकी)
श्रीकृष्ण-
(दोहा)
चंद्र कहूँ, तौ बनत ना, होत दिवस दुति छीन।
कमल बदन उपमा दिएं, निसि बिकास ते हीन।।
अर्थ- अहा! चंद्रमा कहूँ तो कैसैं कहूँ? ये दिन में प्रकासहीन रहै है। और कमल कहूँ तो कैसैं कहूँ; क्योंकि यह रात्रि में अपनौ मुख बंद करि लेय है। हे प्यारी बृषभानुजा! आपके मुख कौ प्रकास तो छिन प्रति बढ़तौ ही रहै है।           क्रमशः.........

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