गौर वल्लभामृत
श्रीश्रीग़ौरवल्लभाअमृत
जब श्रीशचीमाता धाम पधारी, सारा नदिया स्तब्ध सा हो गया, क्यूँकि नदिया की जगतमाता श्रीशचीमाता नदिया को महादुःख के सागर में डुबो कर धाम गमन कर गयी, श्रीमहाप्रभुजी का दुःख भी केवल श्रीमहाप्रभु ही जानते है
यह प्रेम वात्सल्य प्रेम की चरमसीमा था तब निमाइ को अपनी माता का दुःख अवश्य होगा ( क्योंकि भगवान का दुःख अपने भक्त के जाने से तो होता ही है)
वहाँ श्रीविष्णुप्रियाजी भी महान दुःख में डूब गयी और अब उनकी कठिन भजन "गम्भीरा भजन" शुरू हुई
उन्होंने दरवाज़ा बंद कर लिया, सबसे बात-चीत कम और वह निरंतर श्रीग़ौर साधना में लीन हो गयी
श्रीमहाप्रभुजी ने स्वयं कहा था श्रीविष्णुप्रियाजी को
गम्भीर साधना के लिए परंतु तभी जब श्रीशचींमाता धाम पधार जाए। उससे पहले श्रीशचीमाता के होते हुए श्रीप्रियाजी कठोर साधना में नहीं गयी थी.
आज वही श्रीग़ौरवल्लभा को श्रीमहाप्रभुजी के वचन स्मरण है।
श्रीईशानपंडित ने श्रीअद्वैतआचार्य को माँ विष्णुप्रियाजी की कठोर साधना के बारे में बताया:
"श्रीप्रियाजी ब्रह्ममूर्त में ही स्नान और अपनी दिनचर्या कर लेती है तब वह कुछ "चावल के दाने लेकर श्रीहरीनाम का उच्चारण करती है, उनका श्रीहरीनाम उच्चारण दोपहर "तीन बजे तक चलता है" वह चावल के एक दाने
पर " एक हरीनाम" " हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" लेती है और जप तक उनका जप पूरा होता है दोपहर तक, तब तक वही हरीनाम लिए हुए चावल " हांडी" पर पका लेती है ।
माता वह चावल अपने मुख पर कपड़ा बाँध कर बड़ी शुद्धता से बनाती है फिर वह चावल वह श्रीमहाप्रभु जी को अर्पण करती है बिना नमक आदि के ( क्यूँकि महाप्रभु जी सन्यासी है तब उनका सन्यास का भी मान रखती है) तब कितनी बार उनसे विनय करती है के "थोड़ा सा प्रभु खाइए ना " तब वो जल का आचमन देती है और एक मुट्ठी चावल प्रसाद वह स्वयं खाती है और बाकी का सभी भक्तों में बाँट देती है
ऐसी कठोर साधना कौन कर सकता है ( श्रीईशाननागर बोले श्रीअद्वैतजी से )
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