अंत पुर

गोलकधाम का दर्शंन
   निरंतर....
श्रीराधा के अंत:पुर का वर्णन

श्रीराधा के अंत:पुर में प्रवेश के लिए देवताओं को सोलह द्वार पार करने पड़े जोकि उत्तम रत्नों व मणियों से निर्मित थे। प्रथम द्वार की रक्षा द्वारपाल वीरभानु कर रहे थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर ही देवताओं को प्रथम द्वार से आगे जाने दिया। दूसरे द्वार पर चन्द्रभानु हाथ में सोने का बेंत लिए पांच लाख गोपों के साथ थे, तीसरे द्वार पर सूर्यभानु हाथ में मुरली लिए नौ लाख गोपों सहित उपस्थित थे। चौथे द्वार पर हाथ में मणिमय दण्ड लिए वसुभानु नौ लाख गोपों के साथ, पांचवें द्वार पर हाथ में बेंत लिए देवभानु दस लाख गोपों के साथ, छठे द्वार पर शक्रभानु दस लाख गोपों के साथ, सातवें द्वार पर रत्नभानु बारह लाख गोपों के साथ, आठवें द्वार पर सुपार्श्व दण्ड व बारह लाख गोपों के साथ, नवें द्वार पर सुबल बारह लाख गोपों के साथ पहरा दे रहे थे। दसवें द्वार पर सुदामा नामक गोप जिनका रूप श्रीकृष्ण के ही समान था, दण्ड लिए बीस लाख गोपों के साथ प्रतिष्ठित थे। ग्यारहवें द्वार पर व्रजराज श्रीदामा करोड़ों गोपों के साथ उपस्थित थे, जिन्हें श्रीराधा अपने पुत्र के समान मानती थीं। उनकी आज्ञा लेकर जब देवेश्वर आगे गए तो आगे के तीनों द्वार स्वप्नकालिक अनुभव के समान अद्भुत, अश्रुत, अतिरमणीय व विद्वानों के द्वारा भी अवर्णनीय थे। उन तीनों द्वारों की रक्षा में कोटि-कोटि गोपांगनाएं नियुक्त थीं। वे सुन्दरियों में भी परम सुन्दरी, रूप-यौवन से सम्पन्न, रत्नाभरणों से विभूषित, सौभाग्यशालिनी व श्रीराधिका की प्रिया हैं। उन्होंने चंदन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से अपना श्रृंगार किया हुआ था।

सोलहवां द्वार सब द्वारों में प्रधान श्रीराधा के अंत:पुर का द्वार था जिसकी रक्षा श्रीराधा की तैंतीस (33) सखियां करती थीं। उन सबके रूप-यौवन व वेशभूषा, अलंकारों व गुणों का वर्णन करना संभव नहीं है। श्रीराधा के ही समान उम्र वाली उनकी तैंतीस सखियां हैं–सुशीला, शशिकला, यमुना, माधवी, रति, कदम्बमाला, कुन्ती, जाह्नवी, स्वयंप्रभा, चन्द्रमुखी, पद्ममुखी, सावित्री, सुधामुखी, शुभा, पद्मा, पारिजाता, गौरी, सर्वमंगला, कालिका, कमला, दुर्गा, भारती, सरस्वती, गंगा, अम्बिका, मधुमती, चम्पा, अपर्णा, सुन्दरी, कृष्णप्रिया, सती, नन्दिनी, और नन्दना। श्रीराधा की सेवा में रहने वाली गोपियां भी उन्हीं की तरह हैं। वे हाथों में श्वेत चंवर लिए रहती हैं। वहां नाना प्रकार का वेश धारण किए गोपिकाओं में कोई हाथों से मृदंग बजा रही थी, तो कोई वीणा-वादन कर रही थी, कोई करताल, तो कोई रत्नमयी कांजी बजा रही थी, कुछ गोपिकाएं नुपुरों की झनकार कर रहीं थीं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण के गुणगान सम्बन्धी पदों का संगीत वहां सब ओर सुनाई पड़ता था। किन्हीं के माथे पर जल से भरे घड़े रखे थे। कुछ नृत्य का प्रदर्शन कर रहीं थी।

इन्द्रनीलमणि और सिंदूरी मणियों से बना यह द्वार पारिजात के पुष्पों से सजा था। उन्हें छूकर बहने वाली वायु से वहां सर्वत्र  दिव्य सुगंध  फैली हुई थी। श्रीराधा के उस आश्चर्यमय अन्त:पुर के द्वार का अवलोकन कर देवताओं के मन में श्रीराधाकृष्ण के दर्शनों की उत्कण्ठा जाग उठी। उनके शरीर में रोमांच हो आया और भक्ति के उद्रेक से आंखें भर आईं। श्रीकृष्णप्राणाधिका श्रीराधा के अंत:पुर का सब कुछ अनिर्वचनीय था।

यह मनोहर भवन गोलाकार बना है और इसका विस्तार बारह कोस का है। इसमें सौ भवन बने हुए हैं। यह चारों ओर से कल्पवृक्षों से घिरा है। श्रीराधाभवन इतने बहुमूल्य रत्नों व मणियों से निर्मित है कि उनकी आभा व तेज से ही वह सदा जगमगाता रहता है। यह अमूल्य इन्द्रनीलमणि के खम्भों से सुशोभित, रत्ननिर्मित मंगल कलशों से अलंकृत और रत्नमयी वेदिकाओं से विभूषित है। विचित्र चित्रों द्वारा चित्रित, माणिक्य, मोतियों व हीरों के हारों से अलंकृत, रत्नों की सीढ़ियों से शोभित, तथा रत्नमय प्रदीपों से प्रकाशित श्रीराधा का भवन तीन खाइयों व तीन दुर्गम द्वारों से घिरा है जिसके प्रत्येक द्वार पर और भीतर सोलह लाख गोपियां श्रीराधा की सेवा में रहती हैं। श्रीराधा की किंकरियों की शोभा भी अलौकिक है जो तपाये हुए स्वर्ण के समान अंगकांति वाली, रत्नमय अलंकारों से अलंकृत व अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्रों से शोभित हैं।
   फल, रत्न, सिन्दूर, कुंकुम, पारिजात पुष्पों की मालाओं, श्वेत चंवर, मोती-माणिक्यों की झालरें, चंदन-पल्लवों की बन्दरवार, चंदन-अगुरु-कस्तूरी जल का छिड़काव, फूलों की सुगन्ध से सुवासित वायु और ब्रह्माण्ड में जितनी भी दुर्लभ वस्तुएं है–उन सबसे उस स्थान को इतना विभूषित किया गया था कि वह सर्वथा अवर्णनीय, अनिरुपित व अकल्पनीय है।

इस दिव्य निज निकुंज (अंत:पुर) के भीतर देवताओं को एक तेजपुंज दिखाई दिया। उसको प्रणाम करने पर देवताओं को उसमें हजार दल वाला एक बहुत बड़ा कमल दिखाई दिया। उसके ऊपर एक सोलह दल का कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दल वाला कमल है। उसके ऊपर कौस्तुभमणियों से जड़ित तीन सीढ़ियों वाला एक सिंहासन है, उसी पर भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधिकाजी के साथ विराजमान हैं।

     मणि-निर्मित जगमग अति प्रांगण, पुष्प-परागों से उज्जवल।
छहों उर्मियों से विरहित वह वेदी अतिशय पुण्यस्थल।।
वेदी के मणिमय आंगन पर योगपीठ है एक महान।
अष्टदलों के अरुण कमल का उस पर करिये सुन्दर ध्यान।।
उसके मध्य विराजित सस्मित नन्द-तनय श्रीहरि सानन्द।
दीप्तिमान निज दिव्य प्रभा से सविता-सम जो करुणा-कंद।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
देवताओं ने भगवान श्रीकृष्ण के अत्यन्त मनोहर रूप को देखा–उनका नूतन जलधर के समान श्यामवर्ण, प्रफुल्ल लाल कमल से तिरछे नेत्र, शरत्चन्द्र के समान निर्मल मुख, दो भुजाएं, अधरों पर मन्द मुसकान, चंदन, कस्तूरी व कुंकुम से चर्चित अंग, श्रीवत्सचिह्न व कौस्तुभमणिभूषित वक्ष:स्थल, रत्नजड़ित किरीट-हार-बाजूबंद, आजानुलम्बिनी वनमाला–ये सब उनकी शोभा बढ़ाते हैं। हाथों में कंगन हैं जो घूमती हुई अग्नि (लुकारी) की शोभा बिखेर रहे हैं। श्रीअंग पर दिव्य रेशमी अत्यन्त निर्मल पीताम्बर सुशोभित है, जिसकी कान्ति तपाये हुए सुवर्ण-की-सी है। ललाट पर तिलक है जो चारों ओर चंदन से और बीच में कुंकुमबिन्दु से बनाया हुआ है। सिर में कनेर के पुष्पों के आभूषण हैं। मस्तक पर मयूरपिच्छ शोभा पा रहा है। श्रीअंगों पर श्रृंगार के रूप में रंग-बिरंगे बेल-बूटों की रचना हो रही है। वक्ष:स्थल पर कमलों की माला झूल रही है जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। उनके चंचल नेत्र श्रीराधा की ओर लगे हैं। भगवान श्रीकृष्ण के वामभाग में विराजित श्रीराधा के कंधे पर उनकी बांयी भुजा सुशोभित है। भगवान ने अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है और हाथ में बांसुरी को धारण कर रखा है। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं जिस पर रत्नमय छत्र तना है। उनके प्रिय सखा ग्वालबाल श्वेत चंवर लिए सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। सुन्दर वेषवाली गोपियां माला व चंदन से उनका श्रृंगार करती हैं। वे मन्द-मन्द मुस्कराते रहते हैं और वे गोपियां कटाक्षपूर्ण चितवन से उनकी ओर निहारती रहती हैं।

   सबके आदिकारण वे स्वेच्छामय रूपधारी भगवान सदैव नित्य किशोर हैं। कस्तूरी, कुंकुम, गन्ध, चंदन, दूर्वा, अक्षत, पारिजात पुष्प तथा विरजा के निर्मल जल से उन्हें नित्य अर्घ्य दिया जाता है। राग-रागिनियां भी मूर्तिमान होकर वाद्ययन्त्र और मुख से उन्हें मधुर संगीत सुनाती हैं। वे रासमण्डल में विराजित रासेश्वर, परमानन्ददाता, सत्य, सर्वसिद्धिस्वरूप, मंगलकारी, मंगलमय, मंगलदाता और आदिपुरुष हैं। बहुत-से नामों द्वारा उन्हीं को पुकारा जाता है। ऐसा उत्कृष्टरूप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण वैष्णवों के परम आराध्य हैं। वे समस्त कारणों के कारण, समस्त सम्पदाओं के दाता, सर्वजीवन और सर्वेश्वर हैं।

वहां श्रीराधारानी रत्नमय सिंहासन पर विराजमान होती हैं। लाखों गोपियां उनकी सेवा में रहती हैं। श्वेत चम्पा के समान उनकी गौरकान्ति है, अरुण ओष्ठ ओर अधर अपनी लालिमा से दुपहरिए के फूल की लालिमा को पराजित कर रहे थे। वे अमूल्य रत्नजटित वस्त्राभूषण पहने, बांये हाथ में रत्नमय दर्पण तथा दाहिने में सुन्दर रत्नमय कमल धारण करती हैं। उनके ललाट पर अनार के फूल की भांति लाल सिंदूर और माथे पर कस्तूरी-चंदन के सुन्दर बिन्दु उनकी शोभा को और बढ़ा रहे हैं। गालों पर विभिन्न मंगलद्रव्यों (कुंकुम, चंदन आदि) से पत्रावली की रचना की गई है। सिर पर घुंघराले बालों का जूड़ा मालती की मालाओं व वेणियों से अलंकृत है। वे उत्तम रत्नों से बनी वनमाला, पारिजात पुष्पों की माला, नुकीली नासिका में गजमुक्ता की बुलाक, हार, केयूर, कंगन आदि पहने हुए हैं। दिव्य शंख के बने हुए विचित्र रमणीय आभूषण भी उनके श्रीअंगों को विभूषित कर रहे हैं। उनके दोनों चरण कमलों की प्रभा को छीने लेते थे जिनमें उन्होंने बहुमूल्य रत्नों के बने हुए पाशक (बिछुए) पहने हुए हैं। उनके अंग-अंग से लावण्य छिटक रहा है। मन्द-मन्द मुसकराते हुए वे प्रियतम श्रीकृष्ण को तिरछी चितवन से निहार रहीं हैं। यह युगल स्वरूप आठ दिव्य सखियों व श्रीदामा आदि आठ गोपालों के द्वारा सेवित हैं।

अष्ट सखी करतीं सदा सेवा परम अनन्य।
श्रीराधा-माधव युगल की, कर निज जीवन धन्य।।
इनके चरण-सरोज में बारम्बार प्रनाम।
करुना कर दें श्रीजुगल-पद-रज-रति अभिराम।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
गोलोक व भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्त कर देवता आनन्द के समुद्र में गोते खाने लगे। यह गोलोकधाम अत्यन्त दुर्लभ है। इसे केवल शंकर, नारायण, अनन्त, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट्, पृथ्वी, गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, विष्णुमाया, सावित्री, तुलसी, गणेश, सनत्कुमार, स्कन्द, नर-नारायण ऋषि, कपिल, दक्षिणा, यज्ञ, ब्रह्मपुत्र, योगी, वायु, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य, रुद्र, अग्नि तथा कृष्णमन्त्र के उपासक वैष्णव–इन सबने ही देखा है। दूसरों ने इसे कभी नहीं देखा है। कृष्ण भक्त ही गोलोक के अधिकारी हैं क्योंकि अपने भक्तों के लिए श्रीकृष्ण अंधे की लकड़ी, निराश्रय के आश्रय, प्राणों के प्राण, निर्बल के बल, जीवन के जीवन, देवों के देव, ईश्वरों के ईश्वर यानि सर्वस्व वे हीं हैं बस।

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