गौरवल्लभा
गौर विरहिणी विष्णु प्रियाजी को कुछ तंद्रा आ रही है,
इसी समय वो स्वप्न देखती हैं
'नीलाचल में उनके प्राण वल्लभ की गम्भीरा लीला का रंग जमा है।वे देखती हैं कि उनके प्राण वल्लभ गम्भीर अंधकार में नीलाचल में रास्ते रास्ते प्रेमोन्मत्त भाव से निःसंग होकर(अकेले) ग्रह ग्रसित के समान छट पटा रहे हैं।हा कृष्ण!हा करुणा सिंधु!कहकर अतिद्रुत वेगसे समुद्र की ओर भाग रहे हैं।
विस्तीर्ण तरंगाकुल समुद्र तट पर इस घोर इस घोर अंधकार में वे एकाकी खड़े कृष्ण विरह व्यंजक न जाने क्या प्रलाप कर रहे हैं,वे मानो समुद्र में कूदने को उद्यत हैं'
गौर वक्ष विलासिनी इस प्रकार स्वप्न देखकर स्थिर न रह सकी।
उन्होंने भूमिशय्या त्यागकर तत्काल उठकर भजन मन्दिर(प्रियाजी का कक्ष ) का द्वार खोला।
बिखरे केश हैं,पागलिनी के समान महाशंका और उद्वेग के साथ बाहर आकर देखा कि उनकी दोनों सखियाँ सोई हुईं हैं
किसीको कुछ न कहकर वे अंधेरे में आंगन में झटपट उतरने लगी।उतरते समय ठोकर लग गई,किसी तरह खुदको संभालकर अंधकार में आंगन में बाहर का द्वार खोजने लगी
तुलसी कानन के सम्मुख ऊंचे तुलसी मंच से उनका सर टकरा गया,भारी चोट लगीं,वो सिरपर हाथ रखकर बैठ गई,फिर मूर्छित हो पृथ्वी पर पड़ी रहीं
कुछ देर बाद उनको बाह्य ज्ञान हुआ तो फिर उठकर बहिर्द्वार खोजने द्रुत वेगसे अंधकार में दौड़ीं
किसी तरह बहिर्द्वार खोजकर उसका अर्गला(छिटकनी) खोलकर बाहर जाने को उद्यत हुई।
उस समय उनके प्राण वल्लभ के पुराने दास अति वृद्ध ईशान एक टिमटिमाता दीपक हाथ मे लेकर उनके सामने आए , और हाथ जोड़कर रोते रोते कहने लगे-"ठकुरानी!इतनी रातमे आप यहां?"
गौर प्रेमोन्माद ग्रस्त गौरवल्लभा के कानों में यह बात नही पहुंची,ईशान को देखकर भी वो नही देख पाई
उन्मादिनी प्रियाजी का तात्कालिक मन का भाव यह है कि वे नीलाचल के समुद्र तीर पर अपने प्राण वल्लभ की प्राण रक्षा के लिए दौड़ रही हैं
ईशान को देखकर थोड़ा रुकी,फिर गंगातीर की ओर दौड़ लगाना चाहती हैं
सुरसरि में उनको समुद्र का भ्रम हो रहा है,गंगा तट उन्हें समुद्र तट लग रहा है
दौड़ने को उद्यत हुई प्रियाजी और पछाड़ खाकर गिरकर मूर्छित हो गईं
ईशान ने आवाज़ लगाकर क्रन्दन कर सब दास दासियों को जगाया
सब प्रियाजी की यह विरह दशा देख रोने लगे
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